गर्ग संहिता
द्वारका खण्ड : अध्याय 12
कक्षीवान ने कहा- वासुदेव ! आपको नमस्कार है। गोविन्द ! पुरुषोत्तम ! दीनवत्सल ! दीनानाथ ! द्वारकानाथ ! परमेश्वर ! आपको मेरा बारंबार प्रणाम है। आपने ही ध्रुव को ध्रुवपद प्रदान किया, प्रह्लाद की पीड़ा हर ली, गजराज का उद्धार किया तथा राजाबलि की भेंट स्वीकार की; आपको बारंबार नमस्कार है। द्रौपदी का चीर बढ़ाकर उसकी लाज बचाने वाले आप श्रीहरि को नमस्कार है। विष, अग्नि और वनवास से पाण्डवों की रक्षा करने वाले पाण्डव सहायक आपको नमस्कार है। यदुकुल के रक्षक तथा इन्द्र के कोप से व्रज के गोपों की रक्षा करने वाले आपको नमस्कार है। गुरु को, माता देवकी को और ब्राह्मण को उनके मरे हुए पुत्रों को लाकर देने वाले श्रीकृष्ण ! आपको बारंबार नमस्कार है। जरासंध की कैद में पडे़ हुए नरेशों को वहाँ से छुटकारा दिलाने वाले, राजा नृग का उद्धार करने वाले तथा सुदामा की दीनता हर लेने वाले आप साक्षात परमेश्वर को नमस्कार है। आप वासुदेव श्रीकृष्ण को नमस्कार है। संकर्षण, प्रद्युम्न और अनिरुद्ध को भी नमस्कार है। इस प्रकार चतुर्व्यूहनुपधारी आप परमेश्वर को मेरा प्रणाम है। देवदेव ! आप ही मेरी माता, आप ही पिता, आप ही बन्धु आप ही सखा, आप ही विद्या, आप ही धन और आप ही मेरे सब कुछ हैं[1]। श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! इस प्रकार श्रीहरि की स्तुति करके प्रेमपूरित कक्षीवान एक श्रेष्ठ विमान पर आरुढ़ हो यादवों के देखते–देखते, सैकड़ों सूर्यों के समान तेजस्वी होकर, दसों दिशाओं को उद्भासित करता हुआ समस्त उपद्रवों से सहित विष्णुधाम में चला गया। मैथिलेश्वर ! श्रीहरि ने जिस सरोवर के तट पर शंख का उद्धार किया था, वह उस घटना के कारण ही गया। जो श्रेष्ठ मानव शंखोद्धार की इस कथा को सुनता है, वह शंखोद्धार तीर्थ में स्नान करने का फल पा जाता है- इसमे संशय नहीं है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ वासुदेव नमस्तेऽस्तु गोविन्द पुरुषोत्तम। दीनवत्सल दीनेश द्वारकेश परेश्वर ।। ध्रुवे ध्रुवपदं दात्रे प्रहलादस्यार्तिहारिणे। गजस्योद्धारिणे तुभ्यं बलर्बलिविदे नम: ।। द्रौपदीचीरसंत्राणकारिणे हरये नम:। गराग्निवनवासेभ्य: पाण्डवानां सहायिने ।। यादवत्राणकर्त्रे च शक्रादाभीररक्षिणे। गुरुमातृद्विजानां च पुत्रदात्रे नमो नम: ।। जरासंधनिरोधार्तनृपाणां मोक्षकारिणे। नृगस्योद्धारिणे साक्षात् सुदाम्नो दैन्यहारिणे ।। वासुदेवाय कृष्णाय नम: संकर्षणाय च। प्रद्युम्नायानिरूद्धाय चतुर्व्यूहाय ते नम: ।। त्वमेव माता च पिता त्वमेव त्वमेव बन्धुश्व सखा त्वमेव। त्वमेव विद्या द्रविणं त्वमेव त्वमेव सर्वं मम देवदेव ।।गर्ग0 द्वारका0 12। 13-19
संबंधित लेख
क्रम संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |