गर्ग संहिता
मथुराखण्ड : अध्याय 6
नारदजी कहते हैं- राजन् ! हर्ष से भरी हुई कुब्जा ने उन दोनों भाइयों के लिये स्त्रिग्ध अनुलेपन प्रदान किया। उस अंगराग ने वे दोनों बन्धु- बलराम और श्रीकृष्ण बड़ी शोभा पाने लगे। व्रज के अन्य बालकों ने भी थोड़ा-थोड़ा वह दिव्य चन्दन ग्रहण किया। कुब्जा तीन जगह से टेढ़ी थी। श्रीकृष्ण ने उसे तत्काल सीधा करने का विचार किया। उन सर्वव्यापी परमेश्वर अपने चरणों द्वारा उसके पैरों के अग्रभाग को दबाकर उत्तान हाथ की दो अंगुलियों से उसकी ठोढ़ी पकड़ ली ओर लोगों के देखते-देखते उसके तीन जगह टेढ़े शरीर को उचका दिया। फिर तो वह उसी समय छड़ी के समान देहवाली, अत्यन्त रूप-सौन्दर्य से सम्पन्न तन्वंग्डी तरूणी हो गयी और अपनी दीप्ति से रम्भा को भी तिरस्कृत-सी करने लगी। उसके हृदय में कामभाव का उदय हुआ और उससे विहृल हो उस पवित्र मुस्कान वाली सैरन्ध्री ने श्रीहरि का वस्त्र पकड़कर इस प्रकार कहा। सैरन्ध्री बोली – सुन्दरप्रवर ! अब तुम शीघ्र ही मेरे घर चलो, निश्चय ही मैं तुम्हें छोड़ नहीं सकूँगी। तुम तो सबके मन की जानने वाले हो, मुझपर कृपा करे। रसिकशेखर ! मानद ! तुमने मेरे मन को बड़े वेग से मथ डाला है। श्रीनारदजी कहते हैं– राजन् ! तब सब गोप ‘अहो ! यह क्या !’ परस्पर यो कहते हुए ताली पीट-पीटकर हँसने लगे। बलरामजी भी बड़े गौर से यह सब देख रहे थे। उस सुन्दरी के अपने घर चलने-के लिये प्रार्थना करने पर भगवान श्रीहरि ने यह उत्तम बात कही। श्रीभगवान बोल – अहो ! यह मथुरापुरी अत्यन्त धन्य है, जहाँ बड़े सौम्य स्वभाव के लोग निवास करते हैं, जो अपरिचित राहगीरों को भी अपने घर बुला ले जाते हैं। सुन्दरी ! मैं घूम-फिरकर मथुरापुरी का दर्शन करके तुम्हारे घर आउँगा। नारदजी कहते हैं– राजन् ! स्त्रेहमयी वाणी द्वारा यो कहकर श्रीकृष्ण ने उसके हाथ से अपने दुपट्टे का छोर खींच लिया और राजमार्ग पर आगे बढते हुए उन्हें कुछ धनी वैश्य दिखायी दिये। उन उत्तम बुद्धिवाले वैश्यों ने पान, फूल, इत्र, दूध और फल आदि द्वारा श्रीहरि का पूजन करके उन्हें उत्तम आसन पर बिठाया और उनके चरणों में प्रणाम किया। वैश्य बोले– देव ! यदि यहाँ आपका राज्य स्थापित हो जाय तो आप हम आत्मीयजनों का सदा ध्यान रखे, हम आपकी प्रजा हैं। प्राय: राज्य मिल जाने पर कोई किसी का स्मरण नहीं करता। नारदजी कहते हैं– राजन् ! तब अच्युत ने सुन्दर मन्द मुस्कराहट के साथ उन वैश्यों से पूछा– ‘धनुष का स्थान कौन है ?’ किंतु वे वैश्य बड़े चालक थे। उन्हें धनुष के तोड़ दिये जाने की आशंका हुई, इसलिये वे भगवान को उसका स्थान नहीं बता रहे थे। किंतु उनके रूप, गुण माधुर्य से मोहित जो अन्य मथुरावासी थे, वे उन्हें धनुष दिखाने की इच्छा से बोले– ‘कुमार ! आइये, देखिये वह धनुष’ । |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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