गर्ग संहिता
मथुराखण्ड : अध्याय 4
श्रीभगवान बोले– राधिके ! मैं वेदस्वरूपा अपनी वाणी को तो टाल देने में समर्थ हूँ, किंतु अपने भक्तों के वचन की अवहेलना करने की शक्ति मुझमें नहीं है। पूर्वकाल में गोलोक में जो कलह हुआ था, उस समय दिये गये श्रीदामा के शाप से मेरे साथ तुम्हारा सौ वर्षों तक वियोग अवश्य होगा– इसमें संशय नहीं है। कल्याणि ! राधिके ! शोक न करो। मैंने तुम्हें जो वरदान दिया है, उसको स्मरण करो। प्रत्येक मास में वियोग-दु:ख की शांति के लिये एक दिन मेरा दर्शन तुम्हें प्राप्त होगा। श्रीराधा ने कहा– हरे ! प्रत्येक मास में एक दिन वियोग-व्यथा को शांत करने के लिये यदि तुम दर्शन देने नहीं जाओगे तो मैं असहृाय दु:ख के कारण अपने प्राणों को अवश्य त्याग दूँगी। लोकाभिराम ! जनभूषण ! विश्वदीप ! मदनमोहन ! जगत के पाप-ताप को हर लेने वाले ! आनन्दकंद ! यदुकुलनन्दन ! नन्दकिशोर ! आज मेरे सामने अपने आगमन के विषय में शपथ खाओ। श्रीभगवान बोले– रम्भोरू राधे ! यदि तुम्हारे वियोग-काल में प्रतिमास एक दिन मैं तुम्हें दर्शन देने के लिय न आउँ तो मेरे लिये गौओं की शपथ है। मैंने यहाँ जो कुछ कहा है, मेरे उस वचन को तुम संशय रहित और निष्कपट समझो। जो बिना किसी हेतु के निश्छल भाव से मैत्री को निभाता है, वही पुरुष धन्यतम है। जो मैत्री स्थापित करके कपट करता है, वह स्वार्थरूपी पट से आच्छादित लम्पट नटमात्र है, उसे धिक्कार है। जैसे यहाँ कर्मेन्द्रियाँ रस, रूप, गन्ध, स्पर्श एवं शब्द को नहीं जान पातीं, उसी प्रकार जो सकाम भाव रखने वाले मुनि हैं, वे उस निरपेक्ष स्वरूप एवं निर्गुण गूढ़ परम सुख को किंचितमात्र भी नहीं जानते। जो लोग समदर्शी, जितेन्द्रिया, अपेक्षा रहित एवं महान संत है, वे ही उस कामना रहित मेरे परम सुख का अनुभव करते हैं– ठीक उसी तरह, जैसे ज्ञानेन्द्रियाँ ही रस आदि विषयों को जान पाती हैं। भामिनि ! मन के सारे भाव पारस्परिक हैं– एक-दूसरे की अपेक्षा रखते हैं। इसलिये किसी एक ही तरफ से प्रीति नहीं होती, दोनों ही ओर से हुआ करती है। अत: सबको अपनी ओर से प्रति प्रेम ही करना चाहिए। इस भूतल पर प्रेम के समान दूसरी कोई वस्तु नहीं है। राधे ! जैसे भाण्डीर-वन तुम्हारा मनोरथ सफल हुआ था, उसी प्रकार फिर होगा। सत्पुरुषों द्वारा जिस हेतु रहित प्रेम का आश्रय लिया जाता है, उसे भी संत-महात्मा निर्गुण ही मानते हैं। जो लोग तुझ राधिका और मुझ केशव में उसी प्रकार भेद की कल्पना नहीं करते, जिस प्रकार दुग्ध और उसकी धवलता में भेद सम्भव नहीं है, वे निष्काम भाव के कारण उद्दीप्त हुई भक्ति से युक्त महात्मा पुरुष ही मेरे उस ब्रह्मपद को प्राप्त होते हैं। रम्भोरू ! जो कुबुद्धि मनुष्य इस भूतल पर तुझ राधिका और मुझ केशव में भेद-दृष्टि रखते हैं, वे जब तक चन्द्रमा और सूर्य की सत्ता है, तब तक कालसूत्र नरक में पड़कर दु:ख भोगते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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