गर्ग संहिता
वृन्दावन खण्ड : अध्याय 23
वह सौ योजन ऊपर चला गया। शंखचूड़ आकाश से जब वेगपूर्वक नीचे गिरा तो उसके मन में किंचित् व्याकुलता आ गयी, तथापि उसने भी कंस को पकड़कर आकाश में दस हजार योजन ऊँचे फेंक दिया। कंस भी आकाश से गिरने पर मन-ही-मन कुछ व्याकुल हो उठा। फिर उसने यक्ष को पकड़कर सहसा पृथ्वी पर दे मारा। फिर शंखचूड़ ने भी कंस को पकड़कर भूमि पर पटक दिया। इस प्रकार घोर युद्ध चलते रहने के कारण भूमण्डल काँपने लगा। इसी बीच में सर्वज्ञ मुनिवर साक्षात गर्गाचार्य वहाँ आ गये। दोनों ने रगंभूमि में उन्हें देखकर प्रणाम किया। तब गर्ग ने ओजस्विनी वाणी में कंस से कहा। श्री गर्ग जी बोले- राजेन्द्र ! युद्ध न करो। इस युद्ध से कोई फल मिलने वाला नहीं है। यह महाबली शंखचूड़ तुम्हारे समान ही वीर है। तुम्हारे मुक्के की मार खाकर गजराज ऐरावत ने धरती पर घुटने टेक दिये थे और उसे अत्यंत मूर्च्छा आ गयी थी। और भी बहुत-से दैत्य तुम्हारे मुक्के की मार खाकर मृत्यु के ग्रास बन गये हैं, परंतु शंखचूड़ धराशायी नहीं हो सका। इसमें सन्देह नहीं कि यह तुम्हारे लिये अजेय है। इसका कारण सुनो। वे परिपूर्णतम परमात्मा जैसे तुम्हारा वध करने वाले हैं, उसी तरह भगवान शिव के वर से बलशाली हुए इस शंखचूड़ को भी मारेंगे। अत: यदुनन्दन ! तुम्हें शंखचूड़ पर प्रेम करना चाहिये। यक्षराज ! तुम्हें भी अवश्य ही कंस पर प्रेमभाव रखना चाहिये। श्री नारद जी कहते हैं- राजन ! गर्गाचार्यजी के यों कहने पर शंखचूड़ तथा कंस दोनों परस्पर मिले और एक-दूसरे से अत्यंत प्रेम करने लगे। तदनंतर कंस से बिदा ले शंखचूड़ अपने घर को जाने लगा। रात्रि के समय मार्ग में उसे रासमण्डल मिला। वहाँ ताल-स्वर से युक्त मनोहर गान उसके कान में पड़ा। फिर उसने रास में श्रीरासेश्वरी के साथ रासेश्वर श्रीकृष्ण का दर्शन किया। उनकी बायीं भुजा श्रीराधा के कन्धे पर सुशोभित थी। वे स्वेच्छानुसार अपने दाहिने पैर को टेढ़ा किये खड़े थे। हाथ में वंशी लिये मुख से सुन्दर मन्द हास की छटा छिटका रहे थे। उनके भ्रूमण्डल पर राशि-राशि कामदेव मोहित थे। व्रज-सुन्दरियों के यूथपति व्रजेश्वर श्रीकृष्ण कोटि-कोटि छत्र-चँवरों से सुसेवित थे। उन्हें अत्यंत कोमल शिशु जानकर शंखचूड़ ने गोपियों को हर ले जाने का विचार किया।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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