गर्ग संहिता
वृन्दावन खण्ड : अध्याय 16
श्री नारद जी कहते हैं- नरेश्वर ! इस प्रकार चन्द्रानना की कही हुई बात सुनकर रासेश्वरी श्रीराधा ने साक्षात श्री हरि को संतुष्ट करने वाली तुलसी-सेवन का व्रत आरम्भ किया। केतकी वन में सौ हाथ गोलाकार भूमि पर बहुत ऊँचा और अत्यंत मनोहर श्री तुलसी का मन्दिर बनवाया, जिसकी दीवार सोने से जड़ी थी और किनारे-किनारे पद्मरागमणि लगी थी। वह सुन्दर मन्दिर पन्ने, हीरे और मोतियों के परकोटे से अत्यंत सुशोभित था तथा उसके चारों ओर परिक्रमा के लिये गली बनायी गयी थी, जिसकी भूमि चिंतामणि से मण्डित थी। बहुत ऊँचा तोरण (मुख्य द्वार या गोपुर) उस मन्दिर की शोभा बढ़ाता था। वहाँ सुवर्णमय ध्वज दण्ड से युक्त पताका फहरा रही थी। चारों ओर ताने हुए सुनहले वितानों (चँदोवों) के कारण वह तुलसी-मन्दिर वैजयंती पताका से युक्त इन्द्र भवन-सा देदीप्यमान था। ऐसे तुलसी मन्दिर के मध्य भाग में हरे पल्ल्वों से सुशोभित तुलसी की स्थापना करके श्रीराधा ने अभिजित मुहूर्त में उनकी सेवा प्रारम्भ की। श्री गर्ग जी को बुलाकर उनकी बतायी हुई विधि से सती श्रीराधा ने बड़े भक्ति भाव से श्रीकृष्ण को संतुष्ट करने के लिये आश्विन शुक्ला पूर्णिमा से लेकर चैत्र पूर्णिमा तक तुलसी-सेवन-व्रत का अनुष्ठान किया । व्रत आरम्भ करके उन्होंने प्रतिमास पृथक-पृथक रस से तुलसी को सींचा। कार्तिक में दूध से, मार्गशीर्ष में ईख के रस से, पौष में द्राक्षा रस से, माघ में बारह मासी आम के रस से, फाल्गुन मास में अनेक वस्तुओं से मिश्रित मिश्री के रस से और चैत्र मास में पंचामृत से उसका सेचन किया। नरेश्वर ! इस प्रकार व्रत पूरा करके वृषभानुनन्दिनी श्रीराधा ने गर्ग जी की बतायी हुई विधि से वैशाख कृष्णा प्रतिपदा के दिन उध्यापन का उत्सव किया। उन्होंने दो लाख ब्राह्मणों को छप्पन भोगों से तृप्त करके वस्त्र और आभूषणों के साथ दक्षिणा दी। विदेहराज ! मोटे-मोटे दिव्य मोतियों का एक लाख भार और सुवर्ण का एक कोटि भार श्री गर्गाचार्य जी को दिया। उस समय आकाश में देवताओं की दुन्दुभियाँ बजने लगीं, अप्सराओं का नृत्य होने लगा और देवता लोग उस तुलसी-मन्दिर के ऊपर दिव्य पुष्पों की वर्षा करने लगे। उसी समय सुवर्णमय सिंहासन पर विराजमान हरिप्रिया तुलसी देवी प्रकट हुई। उनके चार भुजाएँ थीं। कमल दल के समान विशाल नेत्र थे। सोलह वर्ष की-सी अवस्था एवं श्याम कांति थी। मस्तक पर हेममय किरीट प्रकाशित था और कानों में कांचनमय कुण्डल झलमला रहे थे। पीताम्बर से आच्छादित केशों की बँधी हुई नागिन-जैसी वेणी में वैजयंती माला धारण किये, गरूड़ से उतर कर तुलसी देवी ने रंगवल्ली- जैसी श्रीराधा को अपनी भुजाओं से अंक में भर लिया और उनके मुख चन्द्र का चुम्बन किया।[1] तुलसी बोलीं- कलावती-कुमारी राधे ! मैं तुम्हारे भक्ति-भाव से वशीभूत हो निरंतर प्रसन्न हूँ। भामिनि ! तुमने केवल लोकसंग्रह की भावना से इस सर्वतोमुखी व्रत का अनुष्ठान किया है (वास्तव में तो तुम पूर्णकाम हो)। यहाँ इन्द्रिय, मन, बुद्धि और चित्त द्वारा जो-जो मनोरथ तुमने किया है, वह सब तुम्हारे सम्मुख सफल हो। पति सदा तुम्हारे अनुकूल हों और इसी प्रकार कीर्तिनीय परम सौभाग्य बना रहे। श्री नारद जी कहते हैं- राजन ! यों कहती हुई हरिप्रिया तुलसी को प्रणाम करके वृषभानु नन्दिनी राधा ने उनसे कहा- ‘देवि ! गोविन्द के युगल चरणारविन्दों में मेरी अहैतु की भक्ति बनी रहे।’ मैथिलीराज शिरोमणे ! तब हरिप्रिया तुलसी ‘तथास्तु’ कहकर अंतर्धान हो गयीं। तब से वृषभानु नन्दिनी राधा अपने नगर में प्रसन्नचित्त रहने लगीं। राजन ! इस पृथ्वी पर जो मनुष्य भक्तिपरायण हो श्री राधिका के इस विचित्र उपाख्यान को सुनता है, वह मन-ही-मन त्रिवर्ग-सुख का अनुभव करके अंत में भगवान को पाकर कृतकृत्य हो जाता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ तदाऽऽविरासीत्तुलसी हरिप्रिया सुवर्णपीठोपरिशोभिसना। चतुर्भुजा पद्मपलाशवीक्षणा श्यामा सफुरद्धेमकिरीटमुण्डला ।।
पीताम्बराच्छादितसर्पवेणी स्त्रजं दधाना नववैजयन्तीम्। खगात्समुत्तीर्य च रंगवल्लीं चुचुम्ब राधां परिरभ्य बाहुभि: ।।
(गर्ग0 वृन्दावन0 16। 31-32)
संबंधित लेख
क्रम संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |