गर्ग संहिता
अश्वमेध खण्ड : अध्याय 13
उद्धव ने कहा– यह राजा इंद्र नील की नगरी है और इसका शुभ नाम माहिष्मतीपुरी है। इसमें रहने वाले सभी वर्णों के लोग भगवान महेश्वर के पूजन में रत रहते हैं। वृष्णिकुलवल्लभ ! इस राजा ने पूर्वकाल में नर्मदा के तट पर बारह वर्षों तक नर्मदेश्वर की पूजा की थी। उनके षोडशोपचार पूजन से भगवान शिव प्रसन्न हो गए और उन्हें दर्शन देकर वर मांगने के लिए प्रेरित करने लगे। भगवान शिव का वचन सुन कर माहिष्मती पुरी के पालक नरेश ने हाथ जोड़ गदगद वाणी में उन रुद्र देव से कहा - ईशान ! आप संपूर्ण जगत के गुरु तथा नर्मदेश्वर हैं। मैं आपको नमस्कार करता हूँ। आप सकाम पुरुषों के कामना पूरक कल्पवृक्ष हैं। महेश्वर ! आप दाता हैं। मैं आपसे यह वर चाहता हूँ कि आप सदा देवता, दैत्य और मनुष्यों से प्राप्त होने वाले भय से मेरी रक्षा करें। राजा की बात सुन कर भगवान शंकर ने प्रसन्न हो तथास्तु कह दिया। राजेंद्र ! ऐसा कह कर वे वहाँ से अंतर्धान हो गए। कन्दर्पनन्दन ! इस कारण भगवान रुद्र के वर से प्रभावित वह शूरवीर नरेश युद्ध किए बिना तुम्हें अश्व नहीं लौटाएगा। उद्धवजी का कथन सुनकर बलवान अनिरुद्ध ने समस्त यादवों के समक्ष धैर्यपूर्वक कहा। अनिरुद्ध बोले – मंत्री प्रवर ! सुनिए, आपने बताया है कि इस राजा के सहायक साक्षात भगवान शिव हैं। परंतु जैसे इन पर शिव की कृपा है, उसी प्रकार मेरे ऊपर भगवान श्री कृष्ण कृपा रखते हैं। -ऐसा कह कर यादवों सहित वीर रुक्मवती कुमार ने अश्व को बंधन से मुक्त करने के लिए राजा इंद्रनील को जीतने का विचार किया। जब प्रद्युम्न कुमार अनिरुद्ध कवच बांध कर खड़े हुए तब समस्त यादव योद्धा परिघ, खड्ग, गदा, धनुष और फरसे लेकर युद्ध के लिए संनद्ध हो गए।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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