गर्ग संहिता
श्रीविज्ञान खण्ड : अध्याय 8
पूजा-विधि का वर्णन श्रीव्यासजी बोले- तदनन्तर स्नान एवं नित्य नैमितिक क्रिया का सम्पादन करके शुद्ध स्थण्डिल पर पाँच रंगों से युक्त मण्डल बनाये। वेद की ऋचाओं द्वारा विधिवत मंगलमय दिव्य उज्जवल कमल की रचना करे। उसमें बत्तीस दल हों और वह केसर और कर्णिका से युक्त हो। राजन् ! कर्णिका के ऊपर श्रीहरि का सुन्दर सिंहासन स्थापित करे। उस पर राधा, रमा, भूदेवी और विरजा की स्थापना करे। उन देवियों के मध्य में साक्षात पुरुषोत्तम भगवान श्रीकृष्ण को प्रतिष्ठित करे। कमल के आठ दलों में राधिकाजी की मंगलमयी आठ सुन्दरी सखियाँ रहें। इसके बाद आठ दलों में भगवान श्रीकृष्ण के सखाओं की स्थापना करे। इसी प्रकार सोलह दलों पर सखियों के दो-दो समुदाय रहें। फिर बुद्धिमान पुरुष कमल के समीप शंख, चक्र, गदा, पद्म, नन्दक नामक तलवार, शागर्ड धनुष, बाण, हल, मुसल, कौस्तुभमणि, वनमाला, श्रीवत्स, नीलाम्बर, पीताम्बर, वंशी और बेंत- इन सबको स्थापित करे। फिर उसके पार्श्व में तालध्वज एवं गरुड़ध्वज से युक्त रथ, सुमति एवं दारुक नाम वाले सारथि, गरुड़, कुमुद, नन्द, सुनन्द, चण्ड, प्रचण्ड, बल, महाबल और कुमुदाक्ष की विद्वान पुरुष यत्नपूर्वक स्थापना करे। इसी प्रकार सब दिशाओं में पृथक-पृथक दिक्पालों को पधराना चाहिये। फिर वहीं विष्वक्सेन, शिव, ब्रह्म, दुर्गा, लक्ष्मी, गणेश, नवग्रह वरुण तथा षोडश मातृकाओं को आसन दे। कमल के अगले भाग में वेदी पर पण्डित जन वीतिहोत्र की स्थापना करें। इसके बाद आवाहन करके आसन, पद्म, विशेषार्ध्य, स्न्नान, यज्ञोपवीत, वस्त्र, चन्दन, अक्षत, मधुपर्क, फूल, धूप, दीप, आभूषण, स्वादिष्ट नैवेद्य, आचमन, ताम्बूल और दक्षिणा समर्पण करे। प्रदक्षिणा और प्रार्थना करके आरती करे। फिर नमस्कार करे। हर एक कर्म के लिये अलग-अलग विधान है आवाहन में पुष्प, आसन में दो कुशा और पाद्य में श्यामदूर्वा और अपराजिता का उपयोग करे। यादव ! अर्घ्य के सुन्दर गन्ध वाले पुष्प रखने चाहिये। राजन् ! स्नान के जल में चन्दन, खस, कपूर, कुंकुम और अगुरु मिलावे। महामते ! इसी प्रकार का जल स्नान के लिये उत्तम होता है। मधुपर्क में आंवला एवं कमल, धूप मे अष्टगन्ध और दीप में कपूर देना चाहिये। पीले रंग का यज्ञोपवीत, वस्त्र में पीताम्बर, भूषण के स्थान पर सोना और गन्ध के स्थान में कुंकुम तथा चन्दन देने चाहिये। फूलों में तुलसी की मंजरी, अक्षतों में चावल और नैवेद्य में नाना प्रकार के पक्वान्न और षटरस भोजन- पदार्थ उत्तम माने गये हैं। जल में केवल गंगाजल और यमुनाजल। राजन ! भोजनोपरान्त आचमन के जल में जायफल और कंकोल मिला दे। ताम्बूल में लौंग और इलायची मिला दे। दक्षिणा के स्थान पर सुवर्ण अर्पण करे। प्रदक्षिणा के प्रकरण में घूमना और आरती में गौ का घृत लेना योग्य है। महाराज ! प्रार्थना में भगवान श्रीहरि की प्रेम लक्षणयुक्त भक्ति करना और नमस्कार के स्थान पर अत्यंत नम्र होकर साष्टांग दण्डवत् प्रणाम करना चाहिये। तदनन्तर पूजक को चाहिये कि वह पवित्र होकर द्वादशाक्षर मन्त्र से शिखा बाँध ले और पूजा की सभी सामग्रियाँ आगे रखकर भगवान के सामने बैठ जाय। इस प्रकार श्रीगर्ग संहिता में श्रीविज्ञान खण्ड के अन्तर्गत नारद बहुलाश्व संवाद में ‘पूजा-विधि का वर्णन’ नामक आठवां अध्याय पूरा हुआ। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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