गर्ग संहिता
मथुराखण्ड : अध्याय 24
बहुलाश्व ने पूछा- महामुने ! कौशाम्बी से कितनी दूर और किस स्थान पर महापुण्यमय “रामतीर्थ” विद्यमान है, यह मुझे बताने की कृपा करें। नारदजी ने कहा- राजन् ! राजेन्द्र ! कौशाम्बी से ईशान कोण में चार योजन की दूरी पर और वायव्य कोण में शूकरक्षेत्र से चार योजन की दूरी पर, कर्णक्षेत्र से छः कोस और नलक्षेत्र पाँच कोस आग्नेय दिशा मे रामतीर्थ की स्थिति बताते हैं। वृद्धकेशी सिद्धपीठ से और बिल्वकेश वन से पूर्व दिशा में तीन कोस दूरी पर विद्वानों ने रामतीर्थ की स्थिति मानी है। वंगदेश में दृढाश्व नाम एक राजा थे। 'वे लोमश मुनि को कुरूप देखकर सदा उनकी हँसी उड़ाया करते थे। इससे उस महामुनि ने उन्हे शाप दे दिया। 'ओ महादुष्ट ! तू विकराल शूकरमुख असुर हो जा।' इस प्रकार मुनि के शाप से राजा कोल नामक क्रोडमुख असुर हो गया। फिर बलदेवजी के प्रहार से आसुर-शरीर को छोड़कर महादैत्य कोल ने परम मोक्ष प्राप्त कर लिया। तब बलराम उद्धव आदि तीनों मन्त्रियों के साथ वहाँ से तत्काल ‘जहुतीर्थ को चले गये, जहाँ जहु के दाहिने कान से गंगाजी का प्रादुर्भाव हुआ था। उस ब्रह्माण-शिरोमणि जहु के नाम पर ही गंगाजी को ‘जाहन्वी' कहा जाता है। वहाँ ब्राह्मणों को दान दे रात भर सब लोग वहीं रहे। तदनन्तर वहाँ से पश्चिम भाग में पाण्डवों का अत्यन्त प्रिय ‘आहार स्थान' नामक स्थान है, जहाँ पहुँचकर उन लोगों ने रात्रि में निवास किया। वहाँ बाह्मणों को दान तथा उत्तम गुणकारक भोजन देकर वे एक योजन दूर माण्डूकदेव के पास गये।' माण्डूकदेव ने अनन्तदेव की कृपा प्राप्त करने के लिए बड़ी भारी तपस्या की थी। उसी के लिए अपने समाज के साथ बलदेवजी वहाँ गये। वह मुँह ऊपर किये एक पैर के बल पर खड़ा था। उसके नेत्र ध्यान में निश्चल थे। वह हृदय मे बलदेवजी के स्वरूप का दर्शन करते हुए उन्हीं के साक्षात दर्शन के लिए लोलुप था। बलदेवजी ने उसके हृदय से अपने उस स्वरूप को हटा लिया। तब उसने नेत्र खोलकर अपने आराध्य देव को बाहर देखा। अनन्तदेव के उस पर सुन्दर रूप को उसने देखा। वे वनमाला से सुशोभित थे और एक कान मे कुण्डल धारण किये हुए थे। उनकी अंग-कान्ति गौर थी। तथा वे तालचिन्ह से अंकित ध्वजा वाले रथ पर बैठे थे। अनन्तदेव के उस पर परम सुन्दर रूप को देखकर उसने बड़ी भक्ति से उनकी स्तुति की। फिर वह अपने आराध्य के चरणों मे गिर पड़ा। बलदेवजी ने उसके मस्तक हाथ रखा और कहा- ‘वर माँगो।' तब वह बोला- 'स्वामिन् ! यदि आप साक्षात भगवान मुझ पर प्रसन्न हैं अथवा यदि मैं आपके अनुग्रह का पात्र हूँ, तो शुकदेवजी के मुख से निकली हुई उस सर्वोत्तम भागवत संहिता को मुझे दीजिए, जो समस्त कलिदोषों का विनाश करने वाली एवं श्रेष्ठ है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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