गर्ग संहिता
मथुराखण्ड : अध्याय 13
उद्धव ! वे मेरे अंत समय प्राण त्याग देने को उद्यत थीं। वे आज भी बड़ी कठिनाई से प्राण धारण करती हैं। मेरे वियोग से उत्पन्न उनकी मानसिक व्यथा को तुम मेरे संदेश-वचनों के द्वारा शांत करो, क्योंकि वार्तालाप की कला में तुम परम कुशल हो। सखे ! मैं पहले जिस रथ पर आरूढ़ होकर व्रज से आया था, उसी रथ को, उन्हीं घोड़ों, सारथि ओर बजती हुई घण्टिकाओं से सुसजिज्त करके अपने साथ ले जाओ। मेरे समान ही रूप बना लो। अभी पीताम्बर वैजयन्ती माला, सहस्त्रदल कमल, दिव्य रत्नों की प्रभा से मण्डित कुण्डल तथा कोटि बालरवियों के समान उद्दीप्त कोस्तुभमणि भी धारण कर लो। मेरी उच्चस्वर से बजने वाली मनोहर बाँसूरी तथा फूलों से सजी हुई जगन्मोहिनी यष्टि (छड़ी) भी ले लो। उद्धव ! मेरे ही समान दिव्य सुगन्ध से आवृत सुन्दर चन्दन, मोरपंख और बजते हुए नूपुरों से युक्त नटवर-वेष धारण कर लो। इसी तरह मेरा ही मोरपंख का मुकुट तथा दोनों बाजूबंद धारण करके मेरे आदेश से अभी यथासम्भव शीघ्र जाओ, जाओ । नारदजी कहते हैं– राजन् ! श्रीकृष्ण के यों कहने पर उद्धव ने शीघ्र ही हाथ जोड़कर उनको नमस्कार किया और उनकी परिक्रमा करके रथपर आरूढ़ हो वे व्रज की ओर चल दिये, जहाँ कोटि-कोटि मनोहर गौएँ दिव्य भूषणों से विभूषित हो श्वेत पर्वत के समान दिखायी देती थीं। वे सब-की-सब दूध देने वाली तरूणी (कलोर), सुशीला, सुरूपा और सद्गुणवती थीं। उनके साथ बछडे़ भी थे। उनकी पूँछ के बाल पीले थे। चलते समय उनकी मूर्तियाँ बड़ी भव्य दिखायी देती थीं। गले के घंटों और पैरों के मंजीरों का झंकार होता रहता था। वे किंकिणियों (क्षुद्र-घण्टिकाओं) के जाल से मण्डित थे। कितनी ही गौएँ सुवर्ण के समान रंग वाली थीं। उनके सींगों में सोना मढ़ा गया था तथा नाना प्रकार के हारों मालाओं से अलंकृत हुई गौओं की प्रभा सब ओर छिटक रही थी। कोई लाल, कोई हरी, कोई ताँबे के रंगवाली, कोई पीली, कोई श्यामा और कोई चितकबरी थी। उस व्रज में धूम्रवर्ण और कोयल के से काले रंग की भी गौएँ दृष्टिगोचर होती थीं। तात्पर्य यह कि उस व्रजभूमि में अनेकानेक रंग वाली गौएँ परिलक्षित होती थीं। वे समुद्र की तरह अथाह दूध देने वाली थीं। उनके अंगो पर तरूणी स्त्रियों के हाथों के छापे लगे हुए थे। हिरन की भाँति चौकड़ी भरने वाले बछडे़ उन सुन्दर गौओं की शोभा बढा रहे थे। उन गौओं के झुंड में बड़े-बड़े साँड़ इधर-उधर चलते दिखायी देते थे, उनके कंधे और सींग बड़े-बड़े थे। वे सब-के-सब धर्मधुरंधर थे। गोपगण हाथों में बेंत की छडी और बाँसूरी लिये हुए थे। उनकी अंगकान्ति श्याम दिखायी देती थी। वे कामदेवों को भी मोहित करने वाली रागों में श्रीकृष्ण-लीलाओं का उच्च स्वर से गान कर रहे थे। उद्धव को दूर से आते देख, उन्हें कृष्ण समझकर व्रज के बालक श्रीकृष्ण दर्शन की लालसा से परस्पर इस प्रकार कहने लगे । |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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