गर्ग संहिता
मथुराखण्ड : अध्याय 9
गुरु की उत्तम सेवा करके दोनों माधवों ने थोडे़ ही समय में सारी विद्याएँ पढ़ लीं और वे दोनों समस्त विद्वानों के शिरोमणि हो गये। तत्पश्चात् वे दोनों भाई हाथ जोडकर गुरुजी को दक्षिणा देने के लिये उद्यत हुए। उस समय उन ब्राह्मण गुरु ने उन दोनों से दक्षिणा में अपने मरे हुए पुत्र को माँगा। तब वे दोनों भाई सुनहरे साज-सामानों से युक्त रथपर आरूढ़ हो, मन-इन्द्रियों को वश में रखते हुए प्रभास तीर्थ में समुद्र के निकट गये। दोनों ही भयानक पराक्रमी थे। उन्हें आया जान समुद्र तत्काल काँप उठा और रत्नों की उत्तम भेंट ले आकर, दोनों हाथ जोड़ उनके चरण प्रान्त में पड़ गया। उससे भगवान ने कहा– ‘तुम मेरे गुरुदेव के पुत्र को शीघ्र ही लौटा दो। तुमने अपनी प्रचण्ड लहरों के घटाटोप से उस ब्राह्मण-बालक का अपहरण कर लिया था’। समुद्र बोला– भगवन ! देवदेवेश्वर ! मैंने उस ब्राह्मण बालक का अपहरण नहीं किया है। उसका हरण तो शंखरूपधारी असुर पंचजन ने किया है। वह बलिष्ठ दैत्यराज सदा मेरे उदर में निवास करता है। देव ! वह देवताओं के लिये भी भयकारक है, अत: आपको उसे जीत लेना चाहिये। नारदजी कहते हैं– समुद्र के यों कहने पर भगवान श्रीकृष्ण ने अपनी कमर में दृढ़तापूर्वक वस्त्र बाँध लिया और वे भयंकर शब्द करने वाले उस समुद्र में बड़े वेग से कूद पड़े। विदहराज ! त्रिलोकी का भार धारण करने वाले श्रीकृष्ण के कूदने से वह समुद्र इस प्रकार अत्यन्त काँपने लगा, मनो वज्रकूट गिरि के द्वारा उसे मथ डाला गया हो। तब वीर पंचजन दैत्य युद्ध करने के लिये सहसा श्रीकृष्ण के सामने आया। उसने माधव पर अपना शूल चला दिया, किंतु उस शूल को हाथ में लेकर श्रीकृष्ण ने उसी के द्वारा उस पर आघात किया। उस आघात से मूर्च्छित हो वह समुद्र में गिर पड़ा। फिर सहसा उठकर कुछ व्याकुलचित हुए पंचजन ने देवेश्वर श्रीहरि को इस प्रकार अपने मस्तक से मारा, मानो किसी सर्प ने पक्षिराज गरुड़ पर अपने फन से प्रहार किया हो। तब साक्षात परिपूर्णतम भगवान श्रीहरि ने कुपित होकर बड़े वेग से उसके मस्तक पर मुक्का मारा। श्रीकृष्ण के मुक्के की मार से तत्काल उसके प्राणपखेरू उड़ गये। विदेहराज ! उसके शरीर से निकली हुई ज्योति घनश्याम श्रीकृष्ण में लीन हो गयी। इस प्रकार पंचजन को मारकर और उसके शरीर से उत्पन्न शंख को साथ ले, वे श्रीकृष्ण सहसा महासागरों से निकले और रथ पर आ बैठे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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