गर्ग संहिता
वृन्दावन खण्ड : अध्याय 11
राजन! उसमें घुँघुरूओं की जाली लगी थी। घंटे और मंजीर बजते थे। दिव्य रूपधारी दैत्य धेनुक बलराम सहित श्रीकृष्ण की परिक्रमा करके, उक्त दिव्य रथ पर आरूढ़ हो, दिशा मण्डल को देदीप्यमान करता हुआ, प्रकृति से परे विद्यमान गोलोकधाम में चला गया। इस प्रकार धेनुक का वध करके बलराम सहित श्रीकृष्ण अपन यशोगान करते हुए ग्वाल-बालों के साथ व्रज को लौटे। उनके साथ गौओं का समुदाय भी था। राजा ने पूछा- मुने ! धेनुकासुर पूर्वजन्म में कौन था ? उसे मुक्ति कैसे प्राप्त हुई ? तथा उसे गधे का शरीर क्यों मिला ? यह सब मुझे ठीक-ठीक बताइये । श्री नारद जी ने कहा- विरोचन कुमार बलि का एक बलवान पुत्र था, जिसका नाम था- साहसिक। वह दस हजार स्त्रियों के साथ गन्धमादन पर्वत पर विहार कर रहा था। वहाँ वन में नाना प्रकार के वाद्यों तथा रमणियों के नूपूरों का महान शब्द होने लगा, जिससे उस पर्वत की कन्दरा में रहकर श्रीकृष्ण का चिंतन करने वाले दुर्वासा मुनि का ध्यान भंग हो गया। वे खड़ाऊँ पहन कर बाहर निकले। उस समय मुनिवर दुर्वासा का शरीर अत्यंत दुर्बल हो गया था। दाढ़ी-मूँछ बहुत बढ़ गयी थी। वे लाठी के सहारे चलते थे। क्रोध की तो वे मूर्तिमान राशि ही थे और अग्नि के समान तेजस्वी जान पड़ते थे। दुर्वासा उन ऋषियों में से हैं, जिनके शाप के भय से यह सारा विश्व काँपता रहता है। वे बोले । दुर्वासा ने कहा- दुर्बुद्धि असुर ! तू गदहे के समान भोगासक्त है, इसलिये गदहा हो जा। आज से चार लाख वर्ष बीतने पर भारत में दिव्य माथुर-मण्डल के अंतर्गत पवित्र तालवन में बलदेवजी के हाथ से तेरी मुक्ति होगी। नारद जी कहते हैं- राजन ! उस शाप के कारण ही भगवान श्रीकृष्ण ने बलराम जी के हाथ से उसका वध करवाया; क्योंकि उन्होंने प्रह्लाद जी को यह वर दे रखा है कि तुम्हारे वंश का कोई दैत्य मेरे हाथ से नहीं मारा जायगा । |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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