गर्ग संहिता
वृन्दावन खण्ड : अध्याय 5
श्री नारद जी ने कहा- नरेश्वर ! ‘हयग्रीव’ नामक दैत्य के एक पुत्र था, जो ‘उत्कल’ नाम से प्रसिद्ध हुआ। उसने समरांगण में देवताओं को परास्त करके देवराज इन्द्र के छत्र को छीन लिया था। उस महाबली दैत्य ने और भी बहुत से मनुष्यों तथा नरेशों की राज्य-सम्पत्ति का अपहरण करके सौ वर्षों तक सर्ववैभवसम्पन्न राज्य का उपभोग किया। एक दिन इधर-उधर विचरता हुआ दैत्य उत्कल गंगासागर संगम पर सिद्ध मुनि जाजलि की पर्णशाला के समीप गया और पानी में बंसी डालकर बारंबार मछलियों को पकड़ने लगा। यद्यपि मुनि ने मना किया, तथापि उस दुर्बुद्धि ने उनकी बात नहीं मानी। मुनिश्रेष्ठ जाजलि सिद्ध महात्मा थे, उन्होंने उत्कल को शाप देते हुए कहा- ‘दुर्मते ! तू बगुले की भाँति मछली पकड़ता और खाता है, इसलिये बगुला ही हो जा।’ फिर क्या था ? उत्कल उसी क्षण बगुले के रूप में परिणत हो गया। तेजोभ्रष्ट हो जाने के कारण उसका सारा गर्व गल गया। उसने हाथ जोड़कर मुनि को प्रणाम किया और उनके दोनों चरणों में पड़कर कहा। उत्कल बोला- मुने ! मैं आपके प्रचण्ड तपोबल को नहीं जानता था। जाजलिजी ! मेरी रक्षा कीजिये। आप- जैसे साधु महात्माओं का संग तो उत्तम मोक्ष का द्वार माना गया है। जो शत्रु और मित्र में, मान और अपमान में, सुवर्ण और मिट्टी के ढ़ेले में तथा सुख और दु:ख में भी समभाव रखते हैं, वे आप- जैसे महात्मा ही सच्चे साधु हैं। मुने! इस भूतल पर महात्माओं के दर्शन से मनुष्यों का कौन-कौन मनोरथ नहीं पूरा हुआ ? ब्रह्मपद, इन्द्रपद, सम्राट का पद तथा योगसिद्धि- सब कुछ संतों की कृपा से सुलभ हो सकते हैं। मुनि श्रेष्ठ जाजले ! आप-जैसे महात्माओं से लोगों का धर्म, अर्थ और काम की प्राप्ति हुई तो क्या हुई? साधुपुरुषों की कृपा से तो साक्षात पूर्णब्रह्म परमात्मा भी मिल जाता है। श्री नारद जी कहते हैं- नरेश्वर ! उस समय उत्कल की विनययुक्त बात सुनकर वे जाजली मुनि प्रसन्न हो गये। उन्होंने साठ हजार वर्षों तक तपस्या की थी। उन्होंने उत्कल से कहा। जाजलि बोले- वैवस्वत मन्वन्तर प्राप्त होने पर जब अट्ठाईसवें द्वापर का अंतिम समय बीतता होगा, उस समय भारत वर्ष के माथुर जनपद में स्थित व्रज मण्डल के भीतर साक्षात परिपूर्णतम भगवान श्रीकृष्ण वृन्दावन में गोवत्स चराते हुए विचरेंगे। उन्हीं दिनों तुम भगवान श्रीकृष्ण में लीन हो जाओगे, इसमें संशय नहीं है। हिरण्याक्ष आदि दैत्य भगवान के प्रति वैर भाव रखने पर भी उनके परम पाद को प्राप्त हो गये हैं । श्री नारद जी कहते हैं- इस प्रकार वकासुर के रूप में परिणत हुआ उत्कल दैत्य जाजलि के वरदान से भगवान श्रीकृष्ण में लय को प्राप्त हुआ। संतों के संग से क्या नहीं सुलभ हो सकता ? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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