गर्ग संहिता
वृन्दावन खण्ड : अध्याय 3
श्री गोकुल में आने पर परम सुन्दरी यमुना ने (विशाखा सखी के नाम से) अपने नेतृत्व में गोप-किशोरियों का एक यूथ बनाया और श्रीकृष्णचन्द्र के रास में सम्मिलित होने के लिये उन्होंने वहीं अपना निवास स्थान निश्चित कर लिया। तदनन्तर वे जब व्रज से आगे जाने लगीं, तब व्रज भूमि के वियोग से विह्वल हो, प्रेमानन्द के आँसू बहाती हुई पश्चिम दिशा की ओर प्रवाहित हुई । तदनन्तर व्रज मण्डल की भूमि को अपने वारि-वेग से तीन बार प्रणाम करके यमुना अनेक देशों को पवित्र करती हुई उत्तम प्रयाग में जा पहुँची। वहाँ गंगा जी के साथ उनका संगम हुआ और वे उन्हें साथ लेकर क्षीर सागर की ओर गयी। उस समय देवतओं ने उनके ऊपर फूलों की वर्षा की और दिग्विजय सूचक जयघोष किया। नदी शिरोमणि कलिनन्दिनी कृष्णवर्णा श्रीयमुना ने समुद्र तक पहुँच कर गदगद वाणी में श्री गंगा से कहा। यमुना ने कहा- समस्त ब्रह्माण्ड़ को पवित्र करने वाली गंगे! तुम धन्य हो। साक्षात श्रीकृष्ण के चरणाविन्दों से तुम्हारा प्रादुर्भाव हुआ है, अत: तुम समस्त लोकों के लिये एक मात्र वन्दनीय हो। शुभे! अब मैं यहाँ से ऊपर उठकर श्री हरि के लोक में जा रही हूँ। तुम्हारी इच्छा हो तो तुम भी मेरे साथ चलो। तुम्हारे समान दिव्य तीर्थ न तो हुआ है और न आगे होगा ही। गंगा (आप) सर्वतीर्थमयी हैं, अत: सुमंगले गंगे! मैं तुम्हें प्रणाम करती हूँ। यदि मैंने कभी कोई अनुचित बात कही हो तो उसके लिये मुझे क्षमा कर देना । गंगा बोली- कृष्णे ! सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को पावन बनाने वाली तो तुम हो, अत: तुम्हीं धन्य हो। श्रीकृष्ण के वामांग से तुम्हारा प्रादुर्भाव हुआ है। तुम परमानन्द-स्वरूपी हो। साक्षात परिपूर्णतमा हो। समस्त लोकों के द्वारा एकमात्र वन्दनीया हो। परिपूर्णतम परमात्मा श्रीकृष्ण की भी पटरानी हो। अत: कृष्णे! तुम सब प्रकार से उत्कृष्ट हो। तुम कृष्णा को मैं प्रणाम करती हूँ। तुम समस्त तीर्थों और देवताओं के लिये भी दुर्लभ हो। गोलोक में भी तुम्हारा दर्शन दुष्कर हैं। मैं तो भगवान श्रीकृष्ण की ही आज्ञा से मंगलमय पाताल लोक में जाऊँगी। यद्यपि तुम्हारे वियोग के भय से मैं बहुत व्याकुल हूँ, तो भी इस समय तुम्हारे साथ चलने में असमर्थ हूँ। व्रज के रास मण्डल में मैं भी तुम्हारे यूथ में सम्मिलित होकर रहूँगी। हरि प्रिये ! मैंने भी यदि कोई अप्रिय बात कह दी हो तो उसके लिये मुझे क्षमा कर देना । सन्नन्द जी कहते हैं-इस प्रकार एक-दूसरे को प्रणाम करके दोनों नदियाँ तुरंत अपने-अपने गंतव्य पथ पर चली गयीं। सुरधुनी गंगा जी अनेक लोकों को पवित्र करती हुई पाताल में चली गयीं और वहाँ भोगवती-वन में जाकर ‘भोगवती गंगा’ के नाम से प्रसिद्ध हुईं। उन्हीं का जल भगवान शंकर और शेषनाग अपने मस्तक पर धारण करते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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