पंचम स्कन्ध: एकोनविंश अध्याय
श्रीमद्भागवत महापुराण: पंचम स्कन्ध: एकोनविंश अध्यायः श्लोक 11-21 का हिन्दी अनुवाद
योगेश्वर! हिरण्यगर्भ भगवान् ब्रह्मा जी ने योग साधन की सबसे बड़ी कुशलता यही बतलायी है कि मनुष्य अन्तकाल में देहाभिमान को छोड़कर भक्तिपूर्वक आपके प्राकृत गुणरहित स्वरूप में अपना मन लगावे। लौकिक और पारलौकिक भोगों के लालची मूढ़ पुरुष जैसे पुत्र, स्त्री और धन की चिन्ता करके मौत से डरते हैं-उसी प्रकार यदि विद्वान् को भी इस निन्दनीय शरीर के छूटने का भय ही बना रहा, तो उसका ज्ञान प्राप्ति के लिये किया हुआ प्रयत्न केवल श्रम ही है। अतः अधोक्षज! आप हमें अपना स्वाभाविक प्रेमरूप भक्तियोग प्रदान कीजिये, जिससे कि प्रभो! इस निन्दनीय शरीर में आपकी माया के कारण बद्धमूल हुई दुर्भेद्य अहंता-ममता को हम तुरंत काट डालें’। राजन्! इस भारतवर्ष में भी बहुत-से पर्वत और नदियाँ हैं-जैसे मलय, मंगलप्रस्थ, मैनाक, त्रिकूट, ऋषभ, कूटक, कोल्लक, सह्य, देवगिरी, ऋष्यमूक, श्रीशैल, वेंकट, महेन्द्र, वारिधार, विन्ध्य, शुक्तिमान्, ऋक्षगिरी, पारियात्र, द्रोण, चित्रकूट, गोवर्धन, रैवतक, कुकुभ, नील, गोकामुख, इन्द्रकील और कामगिरि आदि। इसी प्रकार और भी सैकड़ों-हजारों पर्वत हैं। उनके तट प्रान्तों से निकलने वाले नद और नदियाँ भी अगणित हैं। ये नदियाँ अपने नामों से ही जीव को पवित्र कर देती हैं और भारतीय प्रजा इन्हीं के जल में स्नानादि करती है। उनमें से मुख्य-मुख्य नदियाँ ये हैं- चन्द्रवसा, ताम्रपर्णी, अवटोदा, कृतमाला, वैहायसी, कावेरी, वेणी, पयस्विनी, शर्करावर्ता, तुंगभद्रा, कृष्णा, वेण्या, भीमरथी, गोदावरी, निर्विन्ध्या, पयोष्णी, तापी, रेवा, सुरसा, नर्मदा, चर्मण्वती, सिन्धु, अन्ध और शोण नाम के नद, महानदी, वेदस्मृति, ऋषिकुल्या, त्रिमासा, कौशिकी, मन्दाकिनी, यमुना, सरस्वती, दृषद्वती, गोमती, सरयू, रोधस्वती, सप्तवती, सुषोमा, शतद्रू, चन्द्रभागा, मरूद्वृधा, वितस्ता, असिक्नी और विश्वा। इस वर्ष में जन्म लेने वाले पुरुषों को ही अपने किये हुए सात्त्विक, राजस और तामस कर्मों के अनुसार क्रमशः नाना प्रकार की दिव्य, मानुष और नार की योनियाँ प्राप्त होती हैं; क्योंकि कर्मानुसार सब जीवों को सभी योनियाँ प्राप्त हो सकती हैं। इसी वर्ष में अपने-अपने वर्ण के लिये नियत किये हुए धर्मों का विधिवत् अनुष्ठान करने से मोक्ष तक की प्राप्ति हो सकती है। परीक्षित! सम्पूर्ण भूतों के आत्मा, रागादि दोषों से रहित, अनिर्वचनीय, निराधार परमात्मा भगवान् वासुदेव में अनन्य एवं अहैतुक भक्तिभाव ही यह मोक्ष पद है। यह भक्तिभाव तभी प्राप्त होता है, जब अनेक प्रकार की गतियों को प्रकट करने वाली अविद्यारूप हृदय की ग्रन्थि कट जाने पर भगवान् के प्रेमी भक्तों का संग मिलता है। देवता भी भारतवर्ष में उत्पन्न हुए मनुष्यों की इस प्रकार महिमा गाते हैं- ‘अहा! जिन जीवों ने भारतवर्ष में भगवान् की सेवा के योग्य मनुष्य-जन्म प्राप्त किया है, उन्होंने ऐसा क्या पुण्य किया है? अथवा इन पर स्वयं श्रीहरि ही प्रसन्न हो गये हैं? इस परम सौभाग्य के लिये तो निरन्तर हम भी तरसते रहते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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