श्रीमद्भागवत महापुराण पंचम स्कन्ध अध्याय 21 श्लोक 1-11

पंचम स्कन्ध: एकविंश अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: पंचम स्कन्ध: एकविंश अध्यायः श्लोक 1-11 का हिन्दी अनुवाद


सूर्य के रथ और उसकी गति का वर्णन

श्रीशुकदेव जी कहते हैं- राजन्! परिमाण और लक्षणों के सहित इस भूमण्डल का कुल इतना ही विस्तार है, सो हमने तुम्हें बता दिया। इसी के अनुसार विद्वान् लोग द्युलोक का भी परिमाण बताते हैं। जिस प्रकार चना-मटर आदि के दो दलों में से एक का स्वरूप जान लेने से दूसरे का भी जाना जा सकता है, उसी प्रकार भूर्लोक के परिमाण से ही द्युलोक का भी परिमाण जान लेना चाहिये। इन दोनों के बीच में अन्तरिक्षलोक है। यह इन दोनों का सन्धिस्थान है। इसके मध्यभाग में स्थित ग्रह और नक्षत्रों के अधिपति भगवान् सूर्य अपने ताप और प्रकाश से तीनों लोकों को तपाते और प्रकाशित करते रहते हैं। वे उत्तरायण, दक्षिणायन और विषुवत् नाम वाली क्रमशः मन्द, शीघ्र और समान गतियों से चलते हुए समयानुसार मकरादि राशियों में ऊँचे-नीचे और समान स्थानों में जाकर दिन-रात को बड़ा, छोटा या समान करते हैं।

जब सूर्य भगवान् मेष या तुला राशि पर आते हैं, तब दिन-रात समान हो जाते हैं; जब वृषादि पाँच राशियों में चलते हैं, तब प्रतिमास रात्रियों में एक-एक घड़ी कम होती जाती है और उसी हिसाब से दिन बढ़ते जाते हैं। जब वृश्चिकादि पाँच राशियों में चलते हैं, तब दिन और रात्रियों में इसके विपरीत परिवर्तन होता है। इस प्रकार दक्षिणायन आरम्भ होने तक दिन बढ़ते रहते हैं और उत्तरायण लगने तक रात्रियाँ। इस प्रकार पण्डितजन मानसोत्तर पर्वत पर सूर्य की परिक्रमा का मार्ग नौ करोड़, इक्यावन लाख योजन बताते हैं। उस पर्वत पर मेरु के पूर्व की ओर इन्द्र की देवधानी, दक्षिण में यमराज की संयमनी, पश्चिम में वरुण की निम्लोचनी और उत्तर में चन्द्रमा की विभावरी नाम की पुरियाँ हैं। इन पुरियों में मेरु के चारों ओर समय-समय पर सूर्योदय, मध्याह्न, सायंकाल और अर्धरात्रि होते रहते हैं; इन्हीं के कारण सम्पूर्ण जीवों की प्रवृत्ति या निवृत्ति होती है।

राजन्! जो लोग सुमेरु पर रहते हैं, उन्हें तो सूर्यदेव सदा मध्याह्नकालीन रहकर ही तपाते रहते हैं। वे अपनी गति के अनुसार अश्विनी आदि नक्षत्रों की ओर जाते हुए यद्यपि मेरु को बायीं रखकर चलते हैं तो भी सारे ज्योतिर्मण्डल को घुमाने वाली निरन्तर दायीं ओर बहती हुई प्रवह वायु द्वारा घुमा दिये जाने से वे उसे दायीं ओर रखकर चलते जान पड़ते हैं। जिस पुरी में सूर्य भगवान् का उदय होता है, उसके ठीक दूसरी ओर की पुरी में अस्त होते मालूम होंगे और जहाँ वे लोगों को पसीने-पसीने करके तपा रहे होंगे, उसके ठीक सामने की ओर आधी रात होने की कारण वे उन्हें निद्रावश किये होंगे। जिन लोगों के मध्याह्न के समय वे स्पष्ट दीख रहे होंगे, वे ही जब सूर्य सौम्यदिशा में पहुँच जायें, तब उनका दर्शन नहीं कर सकेंगे।

सूर्यदेव जब इन्द्र की पुरी से यमराज की पुरी को चलते हैं, तब पंद्रह घड़ी में वे सवा दो करोड़ और साढ़े बारह लाख योजन से कुछ–पचीस हजार योजन-अधिक चलते हैं। फिर इसी क्रम से वे वरुण और चन्द्रमा की पुरियों को पार करके पुनः इन्द्र की पुरी में पहुँचते हैं। इस प्रकार चन्द्रमा आदि अन्य ग्रह भी ज्योतिश्चक्र में अन्य नक्षत्रों के साथ-साथ उदित और अस्त होते रहते हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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