श्रीमद्भागवत महापुराण चतुर्थ स्कन्ध अध्याय 9 श्लोक 1-10

चतुर्थ स्कन्ध: नवम अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: नवम अध्यायः श्लोक 1-10 का हिन्दी अनुवाद


ध्रुव का वर पाकर घर लौटना

श्रीमैत्रेय जी कहते हैं- विदुर जी! भगवान् के इस प्रकार आश्वासन देने से देवताओं का भय जाता रहा और वे उन्हें प्रणाम करके स्वर्गलोक को चले गये। तदनन्तर विराट्स्वरूप भगवान् गरुड़ पर चढ़कर अपने भक्त को देखने के लिये मधुवन में आये। उस समय ध्रुव जी तीव्र योगाभ्यास से एकाग्र हुई बुद्धि के द्वारा भगवान् की बिजली के समान देदीप्यमान जिस मूर्ति का अपने हृदयकमल में ध्यान कर रहे थे, वह सहसा विलीन हो गयी। इससे घबराकर उन्होंने ज्यों ही नेत्र खोले कि भगवान् के उसी रूप को बाहर अपने सामने खड़ा देखा। प्रभु का दर्शन पाकर बालक ध्रुव को बड़ा कुतूहल हुआ, वे प्रेम में अधीर हो गये। उन्होंने पृथ्वी पर दण्ड के समान लोटकर उन्हें प्रणाम किया। फिर वे इस प्रकार प्रेमभरी दृष्टि से उनकी ओर देखने लगे मानो नेत्रों से उन्हें पी जायेंगे, मुख से चूम लेंगे और भुजाओं में कस लेंगे। वे हाथ जोड़े प्रभु के सामने खड़े थे और उनकी स्तुति करना चाहते थे, परन्तु किस प्रकार करें यह नहीं जानते थे। सर्वान्तर्यामी हरि उनके मन की बात जान गये; उन्होंने कृपापूर्वक अपने वेदमय शंख को उनके गाल से छुआ दिया। ध्रुव जी भविष्य में अविचल पद प्राप्त करने वाले थे। इस समय शंख का स्पर्श होते ही उन्हें वेदमयी दिव्य वाणी प्राप्त हो गयी और जीव तथा ब्रह्म के स्वरूप का भी निश्चय हो गया। वे अत्यन्त भक्तिभाव से धैर्यपूर्वक विश्वविख्यात कीर्तिमान् श्रीहरि की स्तुति करने लगे।

ध्रुव जी ने कहा- प्रभो! आप सर्वशक्तिसम्पन्न हैं; आप ही मेरी अन्तःकरण में प्रवेशकर अपने तेज से मेरी इस सोयी हुई वाणी को सजीव करते हैं तथा हाथ, पैर, कान और त्वचा आदि अन्यान्य इन्द्रियों एवं प्राणों को भी चेतनता देते हैं। मैं आप अन्तर्यामी भगवान् को प्रणाम करता हूँ।

भगवन्! आप एक ही हैं, परन्तु अपनी अनन्त गुणमयी मायाशक्ति से इस महदादि सम्पूर्ण प्रपंच को रचकर अन्तर्यामीरूप से उसमें प्रवेश कर जाते हैं और फिर इसके इन्द्रियादि असत् गुणों में उनके अधिष्ठातृ-देवताओं के रूप में स्थित होकर अनेक रूप भासते हैं- ठीक वैसे ही जैसे तरह-तरह की लकड़ियों में प्रकट हुई आग अपनी उपाधियों के अनुसार भिन्न-भिन्न रूपों में भासती है।

नाथ! सृष्टि के आरम्भ में ब्रह्माजी ने भी आपकी शरण लेकर आपके दिये हुए ज्ञान के प्रभाव से ही इस जगत् को सोकर उठे हुए पुरुष के समान देखा था। दीनबन्धो! उन्हीं आपके चरणतल का मुक्त पुरुष भी आश्रय लेते हैं, कोई भी कृतज्ञ पुरुष उन्हें कैसे भूल सकता है? प्रभो! इन शवतुल्य शरीरों के द्वारा भोगे जाने वाला, इन्द्रिय और विषयों के संसर्ग से उत्पन्न सुख तो मनुष्यों को नरक में भी मिल सकता है। जो लोग इस विषयसुख के लिये लालायित रहते हैं और जो जन्म-मरण के बन्धन से छुड़ा देने वाले कल्पतरुस्वरूप आपकी उपासना भगवत-प्राप्ति के सिवा किसी अन्य उद्देश्य से करते हैं, उनकी बुद्धि अवश्य ही आपकी माया के द्वारा ठगी गयी है। नाथ! आपके चरणकमलों का ध्यान करने से और आपके भक्तों के पवित्र चरित्र सुनने से प्राणियों को जो आनन्द प्राप्त होता है, वह निजानन्दस्वरूप ब्रह्म में भी नहीं मिल सकता। फिर जिन्हें काल की तलवार काटे डालती है, उन स्वर्गीय विमानों से गिरने वाले पुरुषों को तो वह सुख मिल ही कैसे सकता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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