श्रीमद्भागवत महापुराण चतुर्थ स्कन्ध अध्याय 2 श्लोक 1-16

चतुर्थ स्कन्ध: द्वितीय अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: द्वितीय अध्यायः श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद


भगवान् शिव और दक्ष प्रजापति का मनोमालिन्य

विदुर जी ने पूछा- ब्रह्मन्! प्रजापति दक्ष तो अपनी लड़कियों से बहुत ही स्नेह रखते थे, फिर उन्होंने अपनी कन्या सती का अनादर करके शीलवालों में सबसे श्रेष्ठ श्रीमहादेव जी से द्वेष क्यों किया? महादेव जी भी चराचर के गुरु, वैररहित, शान्तमूर्ति, आत्माराम और जगत् के परम आराध्य देव हैं। उनसे भला, कोई क्यों वैर करेगा? भगवन्! उन ससुर और दामाद में इतना विद्वेष कैसे हो गया, जिसके कारण सती ने अपने दुस्त्यज प्राणों तक की बलि दे दी? यह आप मुझसे कहिये।

श्रीमैत्रेय जी ने कहा- विदुर जी! पहले एक बार प्रजापतियों के यज्ञ में सब बड़े-बड़े ऋषि, देवता, मुनि और अग्नि आदि अपने-अपने अनुयायियों के सहित एकत्र हुए थे। उसी समय प्रजापति दक्ष ने भी उस सभा में प्रवेश किया। वे अपने तेज से सूर्य के समान प्रकाशमान थे और उस विशाल सभा-भवन का अन्धकार दूर किये देते थे। उन्हें आया देख ब्रह्मा जी और महादेव जी के अतिरिक्त अग्नि पर्यन्त सभी सभासद् उनके तेज से प्रभावित होकर अपने-अपने आसनों से उठकर खड़े हो गये। इस प्रकार समस्त सभासदों से भलीभाँति सम्मान प्राप्त करके तेजस्वी दक्ष जगत्पिता ब्रह्मा जी को प्रणाम कर उनकी आज्ञा से अपने आसन पर बैठ गये। परन्तु महादेव जी को पहले से बैठा देख तथा उनसे अभ्युत्थानादि के रूप में कुछ भी आदर न पाकर दक्ष उनका यह व्यवहार सहन न कर सके। उन्होंने उनकी ओर टेढ़ी नजर से इस प्रकार देखा मानो उन्हें वे क्रोधाग्नि से जला डालेंगे। फिर कहने लगे-

‘देवता और अग्नियों के सहित समस्त ब्रह्मर्षिगण मेरी बात सुनें। मैं नासमझी या द्वेषवश नहीं कहता, बल्कि शिष्टाचार की बात कहता हूँ। यह निर्लज्ज महादेव समस्त लोकपालों की पवित्र कीर्ति को धूल में मिला रहा है। देखिये, इस घमण्डी ने सत्पुरुषों के आचरण को लांछित एवं मटियामेट कर दिया है। बन्दर के-से नेत्र वाले इसने सत्पुरुषों के समान मेरी सावित्री-सरीखी मृगनयनी पवित्र कन्या का अग्नि और ब्राह्मणों के सामने पाणिग्रहण किया था, इसलिये यह एक प्रकार मेरे पुत्र के समान हो गया है। उचित तो यह था कि यह उठकर मेरा स्वागत करता, मुझे प्रणाम करता; परन्तु इसने वाणी से भी मेरा सत्कार नहीं किया।

हाय! जिस प्रकार शूद्र को कोई वेद पढ़ा दे, उसी प्रकार मैंने इच्छा न होते हुए भी भावीवश इसको अपनी सुकुमारी कन्या दे दी! इसने सत्कर्म का लोप कर दिया, यह सदा अपवित्र रहता है, बड़ा घमण्डी है और धर्म की मर्यादा को तोड़ रहा है। यह प्रेतों के निवासस्थान भयंकर श्मशानों में भूत-प्रेतों को साथ लिये घूमता रहता है। पूरे पागल की तरह सिर के बाल बिखेरे नंग-धडंग भटकता है, कभी हँसता है, कभी रोता है। यह सारे शरीर पर चिता की अपवित्र भस्म लपेटे रहता है, गले में भूतों के पहनने योग्य नरमुण्डों की माला और सारे शरीर में हड्डियों के पहनने योग्य नरमुण्डों की माला और सारे शरीर में हड्डियों के गाहने पहने रहता है। यह बस, नाम भर का ही शिव है, वास्तव में है पूरा अशिव-अमंगलरूप। जैसे यह स्वयं मतवाला है, वैसे ही इसे मतवाले ही प्यारे लगते हैं। भूत-प्रेत-प्रमथ आदि निरे तमोगुणी स्वभाव वाले जीवों का यह नेता है। अरे! मैंने केवल ब्रह्मा जी के बहकावे में आकर ऐसे भूतों के सरदार, आचारहीन और दुष्ट स्वभाव वाले को अपनी भोली-भाली बेटी ब्याह दी’।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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