श्रीमद्भागवत महापुराण सप्तम स्कन्ध अध्याय 3 श्लोक 1-14

सप्तम स्कन्ध: तृतीयोऽध्याय अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: सप्तम स्कन्ध: तृतीय अध्यायः श्लोक 1-12 का हिन्दी अनुवाद


हिरण्यकशिपु की तपस्या और वर प्राप्ति

नारद जी ने कहा- युधिष्ठिर! अब हिरण्यकशिपु ने यह विचार किया कि ‘मैं अजेय, अजर, अमर और संसार का एकछत्र सम्राट् बन जाऊँ, जिससे कोई मेरे सामने खड़ा तक न हो सके।’ इसके लिये वह मन्दराचल की एक घाटी में जाकर अत्यन्त दारुण तपस्या करने लगा। वहाँ हाथ ऊपर उठाकर आकाश की ओर देखता हुआ वह पैर के अँगूठे के बल पृथ्वी पर खड़ा हो गया। उसकी जटाएँ ऐसी चमक रही थीं, जैसे प्रलयकाल के सूर्य की किरणें। जब वह इस प्रकार तपस्या में संलग्न हो गया, तब देवता लोग अपने-अपने स्थानों और पदों पर पुनः प्रतिष्ठित हो गये।

बहुत दिनों तक तपस्या करने के बाद उसकी तपस्या की आग धूएँ के साथ सिर से निकलने लगी। वह चारों ओर फैल गयी और ऊपर-नीचे तथा अगल-बगल के लोकों को जलाने लगी। उसकी लपट से नदी और समुद्र खौलने लगे। द्वीप और पर्वतों के सहित पृथ्वी डगमगाने लगी। ग्रह और तारे टूट-टूटकर गिरने लगे तथा दसों-दिशाओं में मानो आग लग गयी। हिरण्यकशिपु की उस तमोमयी आग की लपटों से स्वर्ग के देवता भी जलने लगे। वे घबराकर स्वर्ग से ब्रह्मलोक में गये और ब्रह्मा जी से प्रार्थना करने लगे- ‘हे देवताओं के भी आराध्यदेव जगत्पति ब्रह्मा जी! हम लोग हिरण्यकशिपु के तप की ज्वाला से जल रहे हैं। अब हम स्वर्ग में नहीं रह सकते। हे अनन्त! हे सर्वाध्यक्ष! यदि आप उचित समझें तो अपनी सेवा करने वाली जनता का नाश होने के पहले ही यह ज्वाला शान्त कर दीजिये। भगवन्! आप सब कुछ जानते ही हैं, फिर भी हम अपनी ओर से आपसे यह निवेदन कर देते हैं कि वह किस अभिप्राय से यह घोर तपस्या कर रहा है।

सुनिये, उसका विचार है कि ‘जैसे ब्रह्मा जी अपनी तपस्या और योग के प्रभाव से इस चराचर जगत् की सृष्टि करके सब लोकों से ऊपर सत्यलोक में विराजते हैं, वैसे ही मैं भी अपनी उग्र तपस्या और योग के प्रभाव से वही पद और स्थान प्राप्त कर लूँगा। क्योंकि समय असीम है और आत्मा नित्य है। एक जन्म में नहीं, अनेक जन्म; एक युग में न सही, अनेक युगों में। अपनी तपस्या की शक्ति से मैं पाप-पुण्यादि के नियमों को पलटकर इस संसार में ऐसा उलट-फेर कर दूँगा, जैसा पहले कभी नहीं था। वैष्णवादि पदों में तो रखा ही क्या है। क्योंकि कल्प के अन्त में उन्हें भी काल के गाल में चला जाना पड़ता है।’[1] हमने सुना है कि ऐसा हठ करके ही वह घोर तपस्या में जुटा हुआ है। आप तीनों लोकों के स्वामी हैं। अब आप जो उचित समझें, वही करें।

ब्रह्मा जी! आपका यह सर्वश्रेष्ठ परमेष्ठि-पद ब्राह्मण एवं गौओं की वृद्धि, कल्याण, विभूति, कुशल और विजय के लिये है। (यदि यह हिरण्यकशिपु के हाथ में चला गया, तो सज्जनों पर संकटों का पहाड़ टूट पड़ेगा)।’

युधिष्ठिर! जब देवताओं ने भगवान् ब्रह्मा जी से इस प्रकार निवेदन किया, तब वे भृगु और दक्ष आदि प्रजापतियों के साथ हिरण्यकशिपु के आश्रम पर गये।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. यद्यपि वैष्णव पद (वैकुण्ठादि नित्यधाम) अविनाशी हैं, परन्तु हिरण्यकशिपु अपनी आसुरी बुद्धि के कारण उनको कल्प के अन्त में नष्ट होने वाला ही मानता था। तामसी बुद्धि में सब बातें विपरीत ही दीखा करती हैं।

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