श्रीमद्भागवत महापुराण चतुर्थ स्कन्ध अध्याय 7 श्लोक 1-15

चतुर्थ स्कन्ध: सप्तम अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: सप्तम अध्यायः श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद


दक्ष यज्ञ की पूर्ति

श्रीमैत्रेय जी कहते हैं- महाबाहो! विदुर जी! ब्रह्मा जी के इस प्रकार प्रार्थना करने पर भगवान् शंकर ने प्रसन्नतापूर्वक हँसते हुए कहा-सुनिये।

श्रीमहादेव जी ने कहा- ‘प्रजापते! भगवान् की माया से मोहित हुए दक्ष जैसे नासमझों के अपराध की न तो मैं चर्चा करता हूँ और न याद ही। मैंने तो केवल सावधान करने के लिये ही उन्हें थोड़ा-सा दण्ड दे दिया। दक्ष प्रजापति का सिर जल गया है, इसलिये उनके बकरे का सिर लगा दिया जाये; भगदेव मित्रदेवता के नेत्रों से अपना यज्ञभाग देखें। पूषा पिसा हुआ अन्न खाने वाले हैं, वे उसे यजमान के दाँतों से भक्षण करें तथा अन्य सब देवताओं के अंग-प्रत्यंग भी स्वस्थ हो जायें; क्योंकि उन्होंने यज्ञ से बचे हुए पदार्थों को मेरा भाग निश्चित किया है। अध्वर्यु आदि याज्ञिकों में से जिसकी भुजाएँ टूट गयी हैं, वे अश्विनीकुमार की भुजाओं से और जिनके हाथ नष्ट हो गये हैं, वे पूषा के हाथों से काम करें तथा भृगु जी के बकरे की-सी दाढ़ी-मूँछ हो जाये’।

श्रीमैत्रेय जी कहते हैं- वत्स विदुर! तब भगवान् शंकर के वचन सुनकर सब लोग प्रसन्न चित्त से ‘धन्य! धन्य!’ कहने लगे। फिर सभी देवता और ऋषियों ने महादेव जी से दक्ष की यज्ञशाला में पधारने की प्रार्थना की और तब वे उन्हें तथा ब्रह्मा जी को साथ लेकर वहाँ गये। वहाँ जैसा-जैसा भगवान् शंकर ने कहा था, उसी प्रकार सब कार्य करके उन्होंने दक्ष की धड़ से यज्ञपशु का सिर जोड़ दिया। सिर जुड़ जाने पर रुद्रदेव की दृष्टि पड़ते ही दक्ष तत्काल सोकर जागने के समान जी उठे और अपने सामने भगवान् शिव को देखा। दक्ष का शंकरद्रोही की कालिमा से कलुषित हृदय उनका दर्शन करने से शरत्कालीन सरोवर के समान स्वच्छ हो गया। उन्होंने महादेव जी की स्तुति करनी चाही, किन्तु अपनी मरी हुई बेटी सती का स्मरण हो आने से स्नेह और उत्कण्ठा के कारण उनके नेत्रों में आँसू भर आये। उनके मुख से शब्द न निकल सका। प्रेम से विह्वल, परम बुद्धिमान् प्रजापति ने जैसे-तैसे अपने हृदय के आवेग को रोककर विशुद्धभाव से भगवान् शिव की स्तुति करनी आरम्भ की।

दक्ष ने कहा- भगवन्! मैंने आपका अपराध किया था, किन्तु आपने उसके बदले में मुझे दण्ड के द्वारा शिक्षा देकर बड़ा ही अनुग्रह किया है। अहो! आप और श्रीहरि तो आचारहीन, नाममात्र के ब्राह्मणों की भी उपेक्षा नहीं करते-फिर हम-जैसे यज्ञ-यागादि करने वालों को क्यों भूलेंगे। विभो! आपने ब्रह्मा होकर सबसे पहले आत्मतत्त्व की रक्षा के लिये अपने मुख से विद्या, तप और व्रतादि के धारण करने वालों ब्राह्मणों को उत्पन्न किया था। जैसे चरवाहा लाठी लेकर गौओं की रक्षा करता है, उसी प्रकार आप उन ब्राह्मणों की सब विपत्तियों से रक्षा करते हैं। मैं आपके तत्त्व को नहीं जानता था, इसी से मैंने भरी सभा में आपको अपने वाग्बाणों से बेधा था। किन्तु आपने मेरे उस अपराध का कोई विचार नहीं किया। मैं तो आप-जैसे पूज्यतम महानुभावों का अपराध करने के कारण नरकादि नीच लोकों में गिरने वाला था, परन्तु आपने अपनी करुणाभरी दृष्टि से मुझे उबार लिया। अब भी आपको प्रसन्न करने योग्य मुझमें कोई गुण नहीं हैं; बस, आप अपने ही उदारतापूर्वक बर्ताव से मुझ पर प्रसन्न हों।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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