श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 86 श्लोक 1-13

दशम स्कन्ध: षडशीतितम अध्याय (पूर्वार्ध)

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श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: षडशीतितम अध्याय श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद


सुभद्राहरण और भगवान का मिथिलापुरी में राजा जनक और श्रुतदेव ब्राह्मण के घर एक ही साथ जाना

राजा परीक्षित ने पूछा- भगवन! मेरे दादा अर्जुन ने भगवान श्रीकृष्ण और बलराम जी की बहिन सुभद्रा जी से, जो मेरी दादी थीं, किस प्रकार विवाह किया? मैं यह जानने के लिये बहुत उत्सुक हूँ।

श्रीशुकदेव जी कहते हैं- परीक्षित! एक बार अत्यन्त शक्तिशाली अर्जुन तीर्थयात्रा के लिये पृथ्वी पर विचरण करते हुए प्रभास क्षेत्र पहुँचे। वहाँ उन्होंने यह सुना कि बलराम जी मेरे मामा की पुत्री सुभद्रा का विवाह दुर्योधन के साथ करना चाहते हैं और वसुदेव, श्रीकृष्ण आदि उनसे इस विषय में सहमत नहीं हैं। अब अर्जुन के मन में सुभद्रा को पाने की लालसा जग आयी। वे त्रिदण्डी वैष्णव का वेष धारण करके द्वारका पहुँचे। अर्जुन सुभद्रा को प्राप्त करने के लिये वहाँ वर्षाकाल में चार महीने तक रहे। वहाँ पुरवासियों और बलराम जी ने उनका खूब सम्मान किया। उन्हें यह पता न चला कि ये अर्जुन हैं।

एक दिन बलराम जी ने आतिथ्य के लिये उन्हें निमन्त्रित किया और उनको वे अपने घर ले आये। त्रिदण्डी-वेषधारी अर्जुन को बलराम जी ने अत्यन्त श्रद्धा के साथ भोजन-सामग्री निवेदित की और उन्होंने प्रेम से भोजन किया। अर्जुन ने भोजन के समय वहाँ विवाह योग्य परम सुन्दरी सुभद्रा को देखा। उसका सौन्दर्य बड़े-बड़े वीरों का मन हरने वाला था। अर्जुन के नेत्र प्रेम से प्रफुल्लित हो गये। उनका मन उसे पाने की आकांक्षा से क्षुब्ध हो गया और उन्होंने उसे पत्नी बनाने का दृढ़ निश्चय कर लिया।

परीक्षित! तुम्हारे दादा अर्जुन भी बड़े ही सुन्दर थे। उनके शरीर की गठन, भाव-भंगी स्त्रियों का हृदय स्पर्श कर लेती थी। उन्हें देखकर सुभद्रा ने भी मन में उन्हीं को पति बनाने का निश्चय किया। वह तनिक मुसकराकर लजीली चितवन से उनकी ओर देखने लगी। उसने अपना हृदय उन्हें समर्पित कर दिया। अब अर्जुन केवल उसी का चिन्तन करने लगे और इस बात का अवसर ढूँढने लगे कि इसे कब हर ले जाऊँ। सुभद्रा को प्राप्त करने की उत्कट कामना से उनका चित्त चक्कर काटने लगा, उन्हें तनिक भी शान्ति नहीं मिलती थी।

एक बार सुभद्रा जी देव-दर्शन के लिये रथ पर सवार होकर द्वारका-दुर्ग से बाहर निकलीं। उसी समय महारथी अर्जुन ने देवकी-वसुदेव और श्रीकृष्ण की अनुमति से सुभद्रा का हरण कर लिया। रथ पर सवार होकर अर्जुन ने धनुष उठा लिया और जो सैनिक उन्हें रोकने के लिये आये, उन्हें मार-पीटकर भगा दिया। सुभद्रा के निज-जन रोते-चिल्लाते रह गये और अर्जुन जिस प्रकार सिंह अपना भाग लेकर चल देता है, वैसे ही सुभद्रा को लेकर चल पड़े। यह समाचार सुनकर बलराम जी बहुत बिगड़े। वे वैसे ही क्षुब्ध हो उठे, जैसे पूर्णिमा के दिन समुद्र। परन्तु भगवान श्रीकृष्ण तथा अन्य सुहृद-सम्बन्धियों ने उनके पैर पकड़कर उन्हें बहुत कुछ समझाया-बुझाया, तब वे शान्त हुए। इसके बाद बलराम जी ने प्रसन्न होकर वर-वधू के लिये बहुत-सा धन, सामग्री, हाथी, रथ, घोड़े और दासी-दास दहेज में भेजे।

श्रीशुकदेवजी कहते हैं- परीक्षित! विदेह की राजधानी मिथिला में एक गृहस्थ ब्राह्मण थे। उनका नाम था श्रुतदेव। वे भगवान श्रीकृष्ण के परम भक्त थे। वे एकमात्र भगवद्भक्ति से ही पूर्णमनोरथ, परमशान्त, ज्ञानी और विरक्त थे।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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