श्रीमद्भागवत महापुराण चतुर्थ स्कन्ध अध्याय 22 श्लोक 1-16

चतुर्थ स्कन्ध: द्वाविंश अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: द्वाविंश अध्यायः श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद


महाराज पृथु को सनकादिका उपदेश

श्रीमैत्रेय जी कहते हैं- जिस समय प्रजाजन परमपराक्रमी पृथ्वीपाल पृथु की इस प्रकार प्रार्थना कर रहे थे, उसी समय वहाँ सूर्य के समान तेजस्वी चार मुनीश्वर आये। राजा और उनके अनुचरों ने देखा तथा पहचान लिया कि वे सिद्धेश्वर अपनी दिव्य कान्ति से सम्पूर्ण लोकों को पाप निर्मुक्त करते हुए आकाश से उतरकर आ रहे हैं। राजा के प्राण सनकादिकों का दर्शन करते ही, जैसे विषयी जीव विषयों की ओर दौड़ता है, उनकी ओर चल पड़े- मानो उन्हें रोकने के लिये ही वे अपने सदस्यों और अनुयायियों के साथ एकाएक उठकर खड़े हो गये। जब वे मुनिगण अर्ध्य स्वीकार कर आसन पर विराज गये, तब शिष्टाग्रणी पृथु ने उनके गौरव से प्रभावित हो विनयवश गरदन झुकाये हुए उनकी विधिवत् पूजा की। फिर उनके चरणोदक को अपने सिर के बालों पर छिड़का। इस प्रकार शिष्टाजनोचित आचार का आदर तथा पालन करके उन्होंने यही दिखाया कि सभी सत्पुरुषों को ऐसा व्यवहार करना चाहिये। सनकादि मुनीश्वर भगवान् शंकर के अग्रज हैं। सोने के सिंहासन पर वे ऐसे सुशोभित हुए, जैसे अपने-अपने स्थानों पर अग्नि देवता। महाराज पृथु ने बड़ी श्रद्धासंयम के साथ प्रेमपूर्वक उनसे कहा।

पृथु जी ने कहा- मंगलमूर्ति मुनीश्वरों! आपके दर्शन तो योगियों को भी दुर्लभ हैं; मुझसे ऐसा क्या पुण्य बना है जिससे स्वतः आपका दर्शन प्राप्त हुआ। जिस पर ब्राह्मण अथवा अनुचरों के सहित श्रीशंकर या विष्णु भगवान् प्रसन्न हों, उसके लिये इहलोक और परलोक में कौन-सी वस्तु दुर्लभ है। इस दृश्य-प्रपंच के कारण महत्त्वादि यद्यपि सर्वगत हैं, तो भी वे सर्वसाक्षी आत्मा को नहीं सकते; इसी प्रकार यद्यपि आप समस्त लोकों में विचरते रहते हैं, तो भी अनधिकारी लोग आपको देख नहीं पाते। जिनके घरों में आप-जैसे पूज्य पुरुष उनके जल, तृण, पृथ्वी, गृहस्वामी अथवा सेवकादि किसी अन्य पदार्थ को स्वीकार कर लेते हैं, वे गृहस्थ धनहीन होने पर भी धन्य हैं। जिन घरों में कभी भगवद्भक्तों के परम पवित्र चरणोदक के छींटे नहीं पड़े, वे सब प्रकार की ऋषि-सिद्धियों से भरे होने पर भी ऐसे वृक्षों के समान है कि जिन पर साँप रहते हैं।

मुनीश्वरों! आपका स्वागत है। आप लोग तो बाल्यावस्था से ही मुमुक्षुओं के मार्ग का अनुसरण करते हुए एकाग्रचित्त से ब्रह्मचर्यादि महान् व्रतों का बड़ी श्रद्धापूर्वक आचरण कर रहे हैं। स्वामियों! हम लोग अपने कर्मों के वशीभूत होकर विपत्तियों के क्षेत्ररूप इस संसार में पड़े हुए केवल इन्द्रियसम्बन्धी भोगों को ही परम पुरुषार्थ मान रहे हैं; सो क्या हमारे निस्तार का भी कोई उपाय है। आप लोगों से कुशल प्रश्न करना उचित नहीं है, क्योंकि आप निरन्तर आत्मा में रमण करते हैं। आपमें यह कुशल है और यह अकुशल है- इस प्रकार की वृत्तियाँ कभी होती ही नहीं। आप संसारानल से सन्तप्त जीवों के परम सुहृद् हैं, इसलिये आपमें विश्वास करके मैं यह पूछना चाहता हूँ कि इस संसार में मनुष्य का किस प्रकार सुगमता से कल्याण हो सकता है? यह निश्चय है कि जो आत्मवान् (धीर) पुरुषों में ‘आत्मा’ रूप से प्रकाशित होते हैं और उपासकों के हृदय में अपने स्वरूप को प्रकट करने वाले हैं, वे अजन्मा भगवान् नारायण ही अपने भक्तों पर कृपा करने के लिये आप-जैसे सिद्ध पुरुषों के रूप में इस पृथ्वी पर विचरा करते हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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