श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 10 श्लोक 1-11

दशम स्कन्ध: दशम अध्याय (पूर्वार्ध)

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श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: दशम अध्याय: श्लोक 1-11 का हिन्दी अनुवाद
यमलार्जुन का उद्धार

राजा परीक्षित ने पूछा - भगवन! आप कृपया यह बतलाइये कि नलकूबर और मणिग्रीव को शाप क्यों मिला। उन्होंने ऐसा कौन-सा निन्दित कर्म किया था, जिसके कारण परम शान्त देवर्षि नारद जी को भी क्रोध आ गया?

श्री शुकदेव जी ने कहा - परीक्षित! नलकूबर और मणिग्रीव - ये दोनों एक तो धनाध्यक्ष कुबेर के लाड़ले लड़के थे और दूसरे इनकी गिनती हो गयी रुद्र भगवान के अनुचरों में। इससे उनका घमण्ड बढ़ गया। एक दिन वे दोनों मन्दाकिनी के तट पर कैलाश के रमणीय उपवन में वारुणी मदिरा पीकर मदोन्मत्त हो गये थे। नशे के कारण उनकी आँखें घूम रही थीं। बहुत-सी स्त्रियाँ उनके साथ गा-बजा रहीं थीं और वे पुष्पों से लदे हुए वन में उनके साथ विहार कर रहे थे। उस समय गंगा जी में पाँत-के-पाँत कमल खिले हुए थे। वे स्त्रियों के साथ जल के भीतर घुस गये और जैसे हाथियों का जोड़ा हथिनियों के साथ जलक्रीडा कर रहा हो, वैसे ही वे उन युवतियों के साथ तरह-तरह की क्रीडा करने लगे।

परीक्षित! संयोगवश उधर से परम समर्थ देवर्षि नारद जी आ निकले। उन्होंने उन यक्ष-युवकों को देखा और समझ लिया कि ये इस समय मतवाले हो रहे हैं। देवर्षि नारद को देखकर वस्त्रहीन अप्सराएँ लजा गयीं। शाप के डर से उन्होंने तो अपने-अपने कपड़े झटपट पहन लिये, परन्तु इन यक्षों ने कपड़े नहीं पहने। जब देवर्षि नारद ने देखा कि ये देवताओं के पुत्र होकर श्रीमद से अन्धे और मदिरापान करके उन्मत्त हो रहे हैं, तब उन्होंने उन पर अनुग्रह करने के लिए शाप देते हुए यह कहा[1]- नारद जी ने कहा- जो लोग अपने प्रिय विषयों का सेवन करते हैं, उनकी बुद्धि को सबसे बढ़कर नष्ट करने वाला है श्रीमद - धन सम्पत्ति का नशा। हिंसा आदि रजोगुणी कर्म और कुलीनता आदि का अभिमान भी उससे बढ़कर बुद्धिभ्रंशक नहीं है; क्योंकि श्रीमद के साथ-साथ तो स्त्री, जुआ और मदिरा भी रहती है।

ऐश्वर्यमद और श्रीमद से अंधे होकर अपनी इन्द्रियों के वश में रहने वाले क्रूर पुरुष अपने नाशवान शरीर को तो अजर-अमर मान बैठते हैं और अपने ही जैसे शरीर वाले पशुओं की हत्या करते हैं। जिस शरीर को ‘भूदेव’, ‘नरदेव’, ‘देव’ आदि नामों से पुकारते हैं - उसकी अन्त में क्या गति होगी? उसमें कीड़े पड़ जायँगे, पक्षी खाकर उसे विष्ठा बना देंगे या वह जलकर राख का ढेर बन जायगा। उसी शरीर के लिये प्राणियों से द्रोह करने में मनुष्य अपना कौन-सा स्वार्थ समझता है? ऐसा करने में तो उसे नरक की ही प्राप्ति होगी।

बतलाओ तो सही, यह शरीर किसकी सम्पत्ति है? अन्न देकर पालने वाले की है या गर्भाधान अक्राने वाले पिता की? यह शरीर उसे नौ महीने पेट में रखने वाली माता का है अथवा माता को पैदा करने वाले नाना का? जो बलवान पुरुष बलपूर्वक इससे काम करा लेता है, उसका है अथवा दाम देकर खरीद लेने वाले का? चिता की जिस धधकती आग में यह जल जायगा, उसका है अथवा जो कुत्ते-स्यार उसको चीथ-चीथकर खा जाने की आशा लगाये बैठे हैं, उनका?

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. देवर्षि नारद के शाप देने में दो हेतु थे- एक तो अनुग्रह- उनके मद का नाश करना और दूसरा अर्थ- श्रीकृष्ण-प्राप्ति।ऐसा प्रतीत होता है कि त्रिकालदर्शी देवर्षि नारद ने अपनी ज्ञानदृष्टि से यह जान लिया कि इन पर भगवान का अनुग्रह होने वाला है। इसी से उन्हें भगवान का भावी कृपा पात्र समझकर ही उनके साथ छेड़-छाड़ की।

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