श्रीमद्भागवत महापुराण षष्ठ स्कन्ध अध्याय 2 श्लोक 1-12

षष्ठ स्कन्ध: द्वितीय अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: षष्ठ स्कन्ध: द्वितीय अध्यायः श्लोक 1-12 का हिन्दी अनुवाद


विष्णुदूतों द्वारा भागवतधर्म-निरूपण और अजामिल का परमधाम गमन

श्रीशुकदेव जी कहते हैं- परीक्षित! भगवान् के नीतिनिपुण एवं धर्म का मर्म जानने वाले पार्षदों ने यमदूतों का यह अभिभाषण सुनकर उनसे इस प्रकार कहा।

भगवान् के पार्षदों ने कहा- यमदूतों! यह बड़े आश्चर्य और खेद की बात है कि धर्मज्ञों की सभा में अधर्म प्रवेश कर रह है, क्योंकि वहाँ निरपराध और अदण्डनीय व्यक्तियों को व्यर्थ ही दण्ड दिया जाता है। जो प्रजा के रक्षक हैं, शासक हैं, समदर्शी और परोपकारी हैं- यदि वे ही प्रजा के प्रति विषमता का व्यवहार करने लगें तो फिर प्रजा किसकी शरण लेगी?

सत्पुरुष जैसा आचरण करते हैं, साधारण लोग भी वैसा ही करते हैं। वे अपने आचरण के द्वारा जिस कर्म को धर्मानुकूल प्रमाणित कर देते हैं, लोग उसी का अनुकरण करने लगते हैं। साधारण लोग पशुओं के समान धर्म और अधर्म का स्वरूप न जानकर किसी सत्पुरुष पर विश्वास कर लेते हैं, उसकी गोद में सिर रखकर निर्भय और निश्चिन्त सो जाते हैं। वही दयालु सत्पुरुष, जो प्राणियों का अत्यन्त विश्वासपात्र है और जिसे मित्रभाव से अपना हितैषी समझकर उन्होंने आत्मसमर्पण का दिया है, उन अज्ञानी जीवों के साथ कैसे विश्वासघात कर सकता है?

यमदूतों! इसने कोटि-कोटि जन्मों की पाप-राशि का पूरा-पूरा प्रायश्चित कर लिया है। क्योंकि इसने विवश होकर ही सही, भगवान् के परम कल्याणमय (मोक्षप्रद) नाम का उच्चारण तो किया है। जिस समय इसने ‘नारायण’ इन चार अक्षरों का उच्चारण किया, उसी समय केवल उतने से ही इस पापी के समस्त पापों का प्रायश्चित हो गया। चोर, शराबी, मित्रद्रोही, ब्रह्मघाती, गुरुपत्नीगामी, ऐसे लोगों का संसर्गी; स्त्री, राजा, पिता और गाय को मारने वाला, चाहे जैसा और चाहे जितना बड़ा पापी हो, सभी के लिये यही-इतना ही सबसे बड़ा प्रायश्चित है कि भगवान् के नामों का उच्चारण[1] किया जाये; क्योंकि भगवन्नामों के उच्चारण से मनुष्य की बुद्धि भगवान् के गुण, लीला और स्वरूप में रम जाती है और स्वयं भगवान् की उसके प्रति आत्मीय बुद्धि हो जाती है।

बड़े-बड़े ब्रह्मवादी ऋषियों ने पापों के बहुत-से प्रायश्चित- कृच्छ्र, चान्द्रायण आदि व्रत बतलाये हैं; परन्तु उन प्रायश्चितों से पापी की वैसी जड़ से शुद्धि नहीं होती, जैसी भगवान् के नामों का, उनसे गुम्फित पदों का[2] उच्चारण करने से होती है। क्योंकि वे नाम पवित्रकीर्ति भगवान् के गुणों का ज्ञान कराने वाले हैं। क्योंकि भगवान् के नाम अनन्त हैं; सब नामों का उच्चारण सम्भव ही नहीं है। तात्पर्य यह है कि भगवान् के एक नाम का उच्चारण करने मात्र से सब पापों की निवृत्ति हो जाती है। पूर्ण विश्वास न होने तथा नामोच्चारण के पश्चात् भी पाप करने के कारण ही उसका अनुभव नहीं होता। यदि प्रायश्चित करने के बाद भी मन फिर से कुमार्ग में- पाप की ओर दौड़े, तो वह चरम सीमा का- पूरा-पूरा प्रायश्चित नहीं है। इसलिये जो लोग ऐसा प्रायश्चित करना चाहें कि जिससे पाप कर्मों और वासनाओं की जड़ ही उखड़ जाये, उन्हें भगवान् के गुणों का गान करना चाहिये; क्योंकि उससे चित्त सर्वथा शुद्ध हो जाता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. इस प्रसंग में ‘नाम-व्याहरण’ का अर्थ नामोच्चारण मात्र ही है। भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं- 'यद् गोविन्देति चुक्रोश कृष्णा मां दूरवासिनम्। ऋणमेतत् प्रवृद्बं मे हृदयान्नापसर्पति॥ मेरे दूर होने के कारण द्रौपदी ने जोर-जोर से ‘गोविन्द, गोविन्द’ इस प्रकार करुण क्रन्दन करके मुझे पुकारा। वह ऋण मेरे ऊपर बढ़ गया है और मेरे हृदय से उसका भार क्षण भर के लिये भी नहीं हटता।
  2. ‘नामपदैः’ कहने का यह अभिप्राय है कि भगवान् का केवल नाम ‘राम-राम’, ‘कृष्ण-कृष्ण’, ‘हरि-हरि’, ‘नारायण-नारायण’, अन्तःकरण की शुद्धि के लिये- पापों की निवृत्ति के लिये पर्याप्त है। ‘नमः नमामि’ इत्यादि क्रिया जोड़ने की भी कोई आवश्यकता नहीं है। नाम के साथ बहुवचन का प्रयोग-–भगवान् के नाम बहुत-से हैं, किसी का भी संकीर्तन कर ले, इस अभिप्राय से है। एक व्यक्ति सब नामों का उच्चारण करे, इस अभिप्राय से नहीं। क्योंकि भगवान् के नाम अनन्त हैं; सब नामों का उच्चारण सम्भव ही नही है। तात्पर्य यह है कि भगवान् के एक नाम का उच्चारण करने मात्र से सब पापों की निवृत्ति हो जाती है। पूर्ण विश्वास न होने तथा नामोच्चारण के पश्चात् भी पाप करने के कारण ही उसका अनुभव नही होता।

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