श्रीमद्भागवत महापुराण चतुर्थ स्कन्ध अध्याय 19 श्लोक 1-18

चतुर्थ स्कन्ध: एकोनविंश अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: एकोनविंश अध्यायः श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद


महाराज पृथु के सौ अश्वमेध यज्ञ

श्रीमैत्रेय जी कहते हैं- विदुर जी! महाराज मनु के ब्रह्मावर्त क्षेत्र में, जहाँ सरस्वती नदी पूर्वमुखी होकर बहती है, राजा पृथु ने सौ अश्वमेध यज्ञों की दीक्षा ली। यह देखकर भगवान् इन्द्र को विचार हुआ कि इस प्रकार तो पृथु के कर्म मेरे कर्मों की अपेक्षा भी बढ़ जायेंगे। इसलिये वे उनके यज्ञमहोत्सव को सहन न कर सके।

महाराज पृथु के यज्ञ में सबके अन्तरात्मा सर्वलोकपूज्य जगदीश्वर भगवान् हरि ने यज्ञेश्वर रूप से साक्षात् दर्शन दिया था। उनके साथ ब्रह्मा, रुद्र तथा अपने-अपने अनुचरों के सहित लोकपालगण भी पधारे थे। उस समय गन्धर्व, मुनि और अप्सराएँ प्रभु की कीर्ति गा रहे थे। सिद्ध, विद्याधर, दैत्य, दानव, यक्ष, सुनन्द-नन्दादि भगवान् के प्रमुख पार्षद और जो सर्वदा भगवान् की सेवा के लिये उत्सुक रहते हैं- वे कपिल, नारद, दत्तात्रेय एवं सनकादि योगेश्वर भी उनके साथ आये थे।

भारत! उस यज्ञ में यज्ञसामग्रियों को देने वाली भूमि ने कामधेनुरूप होकर यजमान की सारी कामनाओं को पूर्ण किया था। नदियाँ दाख और ईख आदि सब प्रकार के रसों को बहा लाती थीं तथा जिनके मधु चूता रहता था- ऐसे बड़े-बड़े वृक्ष दूध, दही, अन्न और घृत आदि तरह-तरह की सामग्रियों समर्पण करते थे। समुद्र बहुत-सी रत्नराशियाँ, पर्वत भक्ष्य, भोज्य, चोष्य और लेह्य- चार प्रकार के अन्न तथा लोकपालों के सहित सम्पूर्ण लोक तरह-तरह के उपहार उन्हें समपर्ण करते थे।

महाराज पृथु तो एकमात्र श्रीहरि को ही अपना प्रभु मानते थे। उनकी कृपा से उस यज्ञानुष्ठान में उनका बड़ा उत्कर्ष हुआ। किन्तु यह बात देवराज इन्द्र को सहन न हुई और उन्होंने उसमें विघ्न डालने की भी चेष्टा की। जिस समय महाराज पृथु अन्तिम यज्ञ द्वारा भगवान् यज्ञपति की आराधना कर रहे थे, इन्द्र ने ईर्ष्यावश गुप्तरूप से उनके यज्ञ का घोड़ा हर लिया। इन्द्र ने अपनी रक्षा के लिये कवचरूप से पाखण्ड वेष धारण कर लिया था, जो अधर्म में धर्म का भ्रम उत्पन्न करने वाला है- जिसका आश्रय लेकर पापी पुरुष भी धर्मात्मा-सा जान पड़ता है। इस वेष में वे घोड़े को लिये बड़ी शीघ्रता से आकाश मार्ग से जा रहे थे कि उन पर भगवान् अत्रि की दृष्टि पड़ गयी। उनके कहने से महाराज पृथु का महारथी पुत्र इन्द्र को मारने के लिये उनके पीछे दौड़ा और बड़े क्रोध से बोला, ‘अरे खड़ा रहा! खड़ा रह’। इन्द्र सिर पर जटाजूट और शरीर में भस्म धारण किये हुए थे। उनका ऐसा वेष देखकर पृथुकुमार ने उन्हें मूर्तिमान् धर्म समझा, इसलिये उन पर बाण नहीं छोड़ा। जब वह इन्द्र पर वार किये बिना ही लौट आया, तब महर्षि अत्रि ने पुनः उसे इन्द्र को मारने के लिये आज्ञा दी- ‘वत्स! इस देवताधम इन्द्र ने तुम्हारे यज्ञ में विघ्न डाला है, तुम इसे मार डालो’।

अत्रि मुनि के इस प्रकार उत्साहित करने पर पृथुकुमार क्रोध में भर गया। इन्द्र बड़ी तेजी से आकाश में जा रहे थे। उनके पीछे वह इस प्रकार दौड़ा, जैसे रावण के पीछे जटायु। स्वर्गपति इन्द्र उसे पीछे आते देख, उस वेष और घोड़े को छोड़कर वहीं अन्तर्धान हो गये और वह वीर अपना यज्ञपशु लेकर पिता की यज्ञशाला में लौट आया। शक्तिशाली विदुर जी! उसके इस अद्भुत पराक्रम को देखकर महर्षियों ने उसका नाम विजिताश्व रखा।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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