श्रीमद्भागवत महापुराण द्वादश स्कन्ध अध्याय 7 श्लोक 1-15

द्वादश स्कन्ध: सप्तम अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: द्वादश स्कन्ध: सप्तम अध्यायः श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद


अथर्ववेद की शाखाएँ और पुराणों के लक्षण

सूतजी कहते हैं- शौनकादि ऋषियों! मैं कह चुका हूँ कि अथर्ववेद के ज्ञाता सुमन्तु मुनि थे। उन्होंने अपनी संहिता अपने प्रिय शिष्य कबन्ध को पढ़ायी। कबन्ध ने उस संहिता के दो भाग करके पथ्य और वेददर्श को उसका अध्ययन कराया। वेददर्श के चार शिष्य-शौल्कायनि, ब्रह्मबलि, मोदोष और पिप्पलायनि। अब पथ्य के शिष्यों के नाम सुनो। शौनक जी! पथ्य के तीन शिष्य थे- कुमुद, शुनक और अथर्ववेत्ता जाजलि। अंगिरा-गोत्रोत्पन्न शुनक के दो शिष्य थे- बभ्रु और सैन्धवायन। उन लोगों ने दो संहिताओं का अध्ययन किया। अथर्ववेद के आचार्यों में इनके अतिरिक्त सैन्धवायनादि के शिष्य सावर्ण्य आदि तथा नक्षत्रकल्प, शान्ति, कश्यप, आंगिरस और कई विद्वान् और भी हुए। अब मैं तुम्हें पौराणिकों के सम्बन्ध में सुनाता हूँ।

शौनक जी! पुराणों के छः आचार्य प्रसिद्ध हैं- त्रय्यारुणि, कश्यप, सावर्णि, अकृतव्रण, वैशम्पायन और हारीत। इन लोगों ने मेरे पिताजी से एक-एक पुराण संहिता पढ़ी थी और मेरे पिताजी ने स्वयं भगवान व्यास से उन संहिताओं का अध्ययन किया था। मैंने उन छहों आचार्यों से सभी संहिताओं का अध्ययन किया था। उन छः संहिताओं के अतिरिक्त और भी चार मूल संहिताएँ थीं। उन्हें भी कश्यप, सावर्णि, परशुराम जी के शिष्य अकृतव्रण और उन सब के साथ मैंने व्यास जी के शिष्य श्रीरोमहर्षण जी से, जो मेरे पिता थे, अध्ययन किया था। शौनक जी! महर्षियों ने वेद और शास्त्रों के अनुसार पुराणों के लक्षण बतलाये हैं। अब तुम स्वस्थ होकर सावधानी से उनका वर्णन सुनो।

शौनक जी! पुराणों के पारदर्शी विद्वान् बतलाते हैं कि पुराणों के दस लक्षण हैं- विश्वसर्ग, विसर्ग, वृत्ति, रक्षा, मन्वन्तर, वंश, वंशानुचरित, संस्था (प्रलय), हेतु (ऊति) और अपाश्रय। कोई-कोई आचार्य पुराणों के पाँच ही लक्षण मानते हैं। दोनों ही बातें ठीक हैं, क्योंकि महापुराणों में दस लक्षण होते हैं और छोटे पुराणों में पाँच। विस्तार करके दस बतलाये हैं और संक्षेप करके पाँच। (अब इनके लक्षण सुनो) जब मूल प्रकृति में लीन गुण क्षुब्ध होते हैं, तब महत्तत्त्व की उत्पत्ति होती है। महत्तत्त्व से तामस, राजस और वैकारिक (सात्त्विक) तीन प्रकार के अहंकार बनते हैं। त्रिविध अहंकार से ही पंचतन्मात्रा, इन्द्रिय और विषयों की उत्पत्ति होती है। इसी उत्पत्ति क्रम का नाम ‘सर्ग’ है। परमेश्वर के अनुग्रह से सृष्टि का सामर्थ्य प्राप्त करके महत्तत्त्व आदि पूर्वकर्मों के अनुसार अच्छी और बुरी वासनाओं की प्रधानता से जो यह चराचर शरीरात्मक जीव की उपाधि की सृष्टि करते हैं, एक बीज से दूसरे बीज के समान, इसी को विसर्ग कहते हैं। चर प्राणियों की अचर-पदार्थ ‘वृत्ति’ अर्थात् जीवन-निर्वाह की सामग्री है। चर प्राणियों के दुग्ध आदि भी इनमें से मनुष्यों ने कुछ तो स्वभाववश कामना के अनुसार निश्चित कर ली है और कुछ ने शास्त्र के आज्ञानुसार।

भगवान युग-युग में पशु-पक्षी, मनुष्य, ऋषि, देवता आदि के रूप में अवतार ग्रहण करके अनेकों लीलाएँ करते हैं। इन्हीं अवतारों में वे वेदधर्म के विरोधियों का संहार भी करते हैं। उनकी यह अवतार-लीला विश्व की रक्षा के लिये ही होती है, इसीलिये उनका नाम ‘रक्षा’ है। मनु, देवता, मनुपुत्र, इन्द्र, सप्तर्षि और भगवान के अंशावतार-इन्हीं छः बातों की विशेषता से युक्त समय को ‘मन्वन्तर’ कहते हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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