श्रीमद्भागवत महापुराण चतुर्थ स्कन्ध अध्याय 3 श्लोक 1-15

चतुर्थ स्कन्ध: तृतीय अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: तृतीय अध्यायः श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद


सती का पिता के यहाँ यज्ञोत्सव में जाने के लिये आग्रह करना

श्रीमैत्रेय जी कहते हैं- विदुर जी! इस प्रकार उन ससुर और दामाद को आपस में वैर-विरोध रखते हुए बहुत अधिक समय निकल गया। इसी समय ब्रह्मा जी ने दक्ष को समस्त प्रजापतियों का अधिपति बना दिया। इससे उसका गर्व और भी बढ़ गया। उसने भगवान् शंकर आदि ब्रह्मनिष्ठों को यज्ञभाग न देकर उनका तिरस्कार करते हुए पहले तो वाजपेय यज्ञ किया और फिर बृहस्पतिसव नाम का महायज्ञ आरम्भ किया। उस यज्ञोत्सव में सभी ब्रह्मर्षि, देवर्षि, पितर, देवता आदि अपनी-अपनी पत्नियों के साथ पधारे, उन सबने मिलकर वहाँ मांगलिक कार्य सम्पन्न किये और दक्ष के द्वारा उन सबका स्वागत-सत्कार किया गया।

उस समय आकाशमार्ग से जाते हुए देवता आपस में उस यज्ञ की चर्चा करते जाते थे। उनके मुख से दक्षकुमारी सती ने अपने पिता के घर होने वाले यज्ञ की बात सुन ली। उन्होंने देखा कि हमारे निवासस्थान कैलास के पास से होकर सब ओर से चंचल नेत्रों वाली गन्धर्व और यक्षों की स्त्रियाँ सज-धजकर अपने-अपने पतियों के साथ विमानों पर बैठी उस यज्ञोत्सव् में जा रही हैं। इससे उन्हें भी उत्सुकता हुई और उन्होंने अपने पति भगवान् भूतनाथ से कहा।

सती ने कहा- वामदेव! सुना है, इस समय आपके ससुर दक्ष प्रजापति के यहाँ बड़ा भारी यज्ञोत्सव हो रहा है। देखिये, ये सब देवता वहीं जा रहे हैं; यदि आपकी इच्छा हो तो हम भी चलें। इस समय अपने आत्मीयों से मिलने के लिये मेरी बहिनें भी अपने-अपने पतियों के सहित वहाँ अवश्य आयेंगी। मैं भी चाहती हूँ कि आपके साथ वहाँ जाकर माता-पिता के दिये हुए गहने, कपड़े आदि उपहार स्वीकार करूँ। वहाँ अपने पतियों से सम्मानित बहिनों, मौसियों और स्नेहार्द्रहृदया जननी को देखने के लिये मेरा मन बहुत दिनों से उत्सुक है। कल्याणमय! इसके सिवा वहाँ महर्षियों का रचा हुआ श्रेष्ठ यज्ञ भी देखने को मिलेगा। अजन्मा प्रभु! आप जगत् की उत्पत्ति के हेतु हैं। आपकी माया से रचा हुआ यह परम आश्चर्यमय त्रिगुणात्मक जगत् आप ही में भास रहा है। किंतु मैं तो स्त्रीस्वभाव होने के कारण आपके तत्त्व से अनभिज्ञ और बहुत दीन हूँ। इसलिये इस समय आपनी जन्मभूमि देखने को बहुत उत्सुक हो रही हूँ। जन्मरहित नीलकण्ठ! देखिये-इनमें कितनी ही स्त्रियाँ तो ऐसी हैं, जिनका दक्ष से कोई सम्बन्ध भी नहीं है। फिर भी वे अपने-अपने पतियों के सहित खूब सज-धजकर झुंड-की-झुंड वहाँ जा रही हैं। वहाँ जाने वाली इन देवांगनाओं के राजहंस के समान श्वेत विमानों से आकाशमण्डल कैसा सुशोभित हो रहा है।

सुर श्रेष्ठ! ऐसी अवस्था में अपने पिता के यहाँ उत्सव का समाचार पाकर उसकी बेटी का शरीर उसमें सम्मिलित होने के लिये क्यों न छटपटायेगा। पति, गुरु और माता-पिता आदि सुहृदों के यहाँ तो बिना बुलाये भी जा सकते हैं। अतः देव! आप मुझ पर प्रसन्न हों; आपको मेरी यह इच्छा अवश्य पूर्ण करनी चाहिये; आप बड़े करुणामय हैं, तभी तो परमज्ञानी होकर भी आपने मुझे अपने आधे अंग में स्थान दिया है। अब मेरी इस याचना पर ध्यान देकर मुझे अनुगृहीत कीजिये।

श्रीमैत्रेय जी कहते हैं- प्रिया सती जी के इस प्रकार प्रार्थना करने पर अपने आत्मीयों का प्रिय करने वाले भगवान् शंकर को दक्ष प्रजापति के उन मर्मभेदी दुर्वचनरूप बाणों का स्मरण हो आया, जो उन्होंने समस्त प्रजापतियों के सामने कहे थे; तब वे हँसकर बोले।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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