श्रीमद्भागवत महापुराण पंचम स्कन्ध अध्याय 13 श्लोक 1-10

पंचम स्कन्ध: त्रयोदश अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: पंचम स्कन्ध: त्रयोदश अध्यायः श्लोक 1-10 का हिन्दी अनुवाद


भवाटवी का वर्णन और रहूगण का संशय नाश

जड भरत ने कहा- राजन्! यह जीवसमूह सुखरूप धन में आसक्त देश-देशान्तर में घूम-फिरकर व्यापार करने वाले व्यापारियों के दल के समान है। इसे माया ने दुस्तर प्रवृत्ति मार्ग में लगा दिया है; इसलिये इसकी दृष्टि सात्त्विक, राजस, तापस भेद से नाना प्रकार के कर्मों पर ही जाती है। उन कर्मों में भटकता-भटकता यह संसाररूप जंगल में पहुँच जाता है। वहाँ इसे तनिक भी शान्ति नहीं मिलती।

महाराज! उस जंगल में छः डाकू हैं। इस वणिक्-समाज का नायक बड़ा दुष्ट है। उसके नेतृत्व में जब यह वहाँ पहुँचता है, तब ये लुटेरे बलात् इसका सब माल-मत्ता लूट लेते हैं तथा भेड़िये जिस प्रकार भेड़ों के झुंड में घुसकर उन्हें खींच ले जाते हैं, उसी प्रकार इसके साथ रहने वाले गीदड़ ही इसे असावधान देखकर इसके धन को इधर-उधर खींचने लगते हैं। वह जंगल बहुत-सी लता, घास और झाड़-झंखाड़ के कारण बहुत दुर्गम हो रहा है। उसमें तीव्र डांस और मच्छर इसे चैन नहीं लेने देते। वहाँ इसे कभी तो गन्धर्व नगर दीखने लगता है और कभी-कभी चमचमाता हुआ अति चंचल अगिया-बेताल आँखों के सामने आ जाता है। यह वणिक्-समुदाय इस वन में निवासस्थान, जल और धनादि में आसक्त होकर इधर-उधर भटकता रहता है।

कभी बवंडर से उठी हुई धूल के द्वारा जब सारी दिशाएँ धूमाच्छादित-सी हो जाती हैं और इसकी आँखों में भी धूल भर जाती है, तो इसे दिशाओं का ज्ञान भी नहीं रहता। कभी इसे दिखायी न देने वाले झींगुरों का कर्णकटु शब्द सुनायी देता है, कभी उल्लुओं की बोली से इसका चित्त व्यथित हो जाता है। कभी इसे भूख सताने लगती है तो यह निन्दनीय वृक्षों का ही सहारा टटोलने लगता है और कभी प्यास से व्याकुल होकर मृगतृष्णा की ओर दौड़ लगाता है। कभी जलहीन नदियों की ओर जाता है, कभी अन्न न मिलने पर आपस में एक-दूसरे से भोजन प्राप्ति की इच्छा करता है, कभी दावानल में घुसकर अग्नि से झुलस जाता है और कभी यक्ष लोग इसके प्राण खींचने लगते हैं तो यह खिन्न होने लगता है। कभी अपने से अधिक बलवान् लोग इसका धन छीन लेते हैं, तो यह दुःखी होकर शोक और मोह से अचेत हो जाता है और कभी गन्धर्व नगर में पहुँचकर घड़ी भर के लिये सब दुःख भूलकर ख़ुशी मनाने लगता है। कभी पर्वतों पर चढ़ना चाहता है तो काँटें और कंकंडों द्वारा पैर चलनी हो जाने से उदास हो जाता है। कुटुम्ब बहुत बढ़ जाता है और उदर पूर्ति का साधन नहीं होता तो भूख की ज्वाला से सन्तप्त होकर अपने ही बन्धु-बान्धवों पर खीझने लगता है।

कभी अजगर सर्प का ग्रास बनकर वन में फेंके हुए मुर्दे के समान पड़ा रहता है। उस समय इसे कोई सुध-बुध नहीं रहती। कभी दूसरे विषैले जन्तु इसे काटने लगते हैं तो उनके विष के प्रभाव से अंधा होकर किसी अंधे कुएँ में गिर पड़ता और घोर दुःखमय अन्धकार में बेहोश पड़ा रहता है। कभी मधु खोजने लगता है तो मक्खियाँ इसके नाक में दम कर देती हैं और इसका सारा अभिमान नष्ट हो जाता है। यदि किसी प्रकार अनेकों कठिनाइयों का सामना करके वह मिल भी गया तो बलात् दूसरे लोग उसे छीन लेते हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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