नवम स्कन्ध: प्रथमोऽध्याय: अध्याय
श्रीमद्भागवत महापुराण: नवम स्कन्ध: प्रथम अध्यायः श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद
राजा परीक्षित ने पूछा- 'भगवन्! आपने सब मन्वन्तरों और उनमें अनन्त शक्तिशाली भगवान् के द्वारा किये हुए ऐश्वर्यपूर्ण चरित्रों का वर्णन किया और मैंने उनका श्रवण भी किया। आपने कहा कि पिछले कल्प के अन्त में द्रविड़ देश के स्वामी राजर्षि सत्यव्रत ने भगवान् की सेवा से ज्ञान प्राप्त किया और वही इस कल्प में वैवस्वत मनु हुए। आपने उनके इक्ष्वाकु आदि नरपति पुत्रों का भी वर्णन किया। ब्रह्मन्! अब आप कृपा करके उनके वंश और वंश में होने वालों का अलग-अलग चरित्र वर्णन कीजिये। महाभाग! हमारे हृदय में सर्वदा ही कथा सुनने की उत्सुकता बनी रहती है। वैवस्वत मनु के वंश में जो हो चुके हों, इस समय विद्यमान हों और आगे होने वाले हों-उन सब पवित्रकीर्ति पुरुषों के पराक्रम का वर्णन कीजिये।' सूतजी कहते हैं- शौनकादि ऋषियों! ब्रह्मवादी ऋषियों की सभा में राजा परीक्षित ने जब यह प्रश्न किया, तब धर्म के परम मर्मज्ञ भगवान् श्रीशुकदेव जी ने कहा। श्रीशुकदेव जी कहते हैं- परीक्षित! तुम मनु वंश का वर्णन संक्षेप से सुनो। विस्तार से तो सैकड़ों वर्ष में भी उसका वर्णन नहीं किया जा सकता। जो परमपुरुष परमात्मा छोटे-बड़े सभी प्राणियों के आत्मा हैं, प्रलय के समय केवल वही थे; यह विश्व तथा और कुछ भी नहीं था। महाराज! उनकी नाभि से एक सुवर्णमय कमलकोष प्रकट हुआ। उसी में चतुर्मुख ब्रह्मा जी का आविर्भाव हुआ। ब्रह्मा जी के मन से मरीचि और मरीचि के पुत्र कश्यप हुए। उनकी धर्मपत्नी दक्षनन्दिनी अदिति से विवस्वान् (सूर्य) का जन्म हुआ। विवस्वान् की संज्ञा नामक पत्नी से श्राद्धदेव मनु का जन्म हुआ। परीक्षित! परममनस्वी राजा श्राद्धदेव ने अपनी पत्नी श्रद्धा के गर्भ से दस पुत्र उत्पन्न किये। उनके नाम थे- इक्ष्वाकु, नृग, शर्याति, दिष्ट, धृष्ट, करुष, नरिष्यन्त, पृषध्र, नभग और कवि। वैवस्वत मनु पहले सन्तानहीन थे। उस समय सर्वसमर्थ भगवान् वसिष्ठ ने उन्हें सन्तान प्राप्ति कराने के लिये मित्रावरुण का यज्ञ कराया था। यज्ञ के आरम्भ में केवल दूध पीकर रहने वाली वैवस्वत मनु की धर्मपत्नी श्रद्धा ने अपने होता के पास जाकर प्रणामपूर्वक याचना की कि मुझे कन्या ही प्राप्त हो। तब अध्वर्यु की प्रेरणा से होता बने हुए ब्राह्मण ने श्रद्धा के कथन का स्मरण करके एकाग्रचित्त से वषट्कार का उच्चारण करते हुए यज्ञकुण्ड में आहुति दी। जब होता ने इस प्रकार विपरीत कर्म किया, तब यज्ञ के फलस्वरूप पुत्र के स्थान पर इला नाम की कन्या हुई। उसे देखकर श्राद्धदेव मनु का मन कुछ विशेष प्रसन्न नहीं हुआ। उन्होंने अपने गुरु वसिष्ठ जी से कहा- ‘भगवन्! आप लोग तो ब्रह्मवादी हैं, आपका कर्म इस प्रकार विपरीत फल देने वाला कैसे हो गया? अरे, ये तो बड़े दुःख की बात है। वैदिक कर्म का ऐसा विपरीत फल तो कभी नहीं होना चाहिये। आप लोगों का मन्त्रज्ञान तो पूर्ण है ही; इसके अतिरिक्त आप लोग जितेन्द्रिय भी हैं तथा तपस्या के कारण निष्पाप हो चुके हैं। देवताओं में असत्य की प्राप्ति के समान आपके संकल्प का यह उलटा फल कैसे हुआ?’ परीक्षित! हमारे वृद्ध पितामह भगवान् वसिष्ठ ने उनकी यह बात सुनकर जान लिया कि होता ने विपरीत संकल्प किया है। इसलिये उन्होंने वैवस्वत मनु से कहा- ‘राजन्! तुम्हारे होता के विपरीत संकल्प से ही हमारा संकल्प ठीक-ठीक पूरा नहीं हुआ। फिर भी अपने तप के प्रभाव से मैं तुम्हें श्रेष्ठ पुत्र दूँगा’। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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