श्रीमद्भागवत महापुराण द्वादश स्कन्ध अध्याय 5 श्लोक 1-9

द्वादश स्कन्ध: पंचम अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: द्वादश स्कन्ध: पंचम अध्यायः श्लोक 1-9 का हिन्दी अनुवाद


श्रीशुकदेव जी का अन्तिम उपदेश

श्रीशुकदेव जी कहते हैं- प्रिय परीक्षित! इस श्रीमद्भागवत महापुराण में बार-बार और सर्वत्र विश्वात्मा भगवान श्रीहरि का ही संकीर्तन हुआ है। ब्रह्मा और रुद्र भी श्रीहरि से पृथक् नहीं हैं, उन्हीं की प्रसाद-लीला और क्रोध-लीला की अभिव्यक्ति हैं। हे राजन्! अब तुम यह पशुओं की-सी अविवेकमूलक धारणा छोड़ दो कि मैं मरूँगा; जैसे शरीर पहले नहीं था और अब पैदा हुआ और फिर नष्ट हो जायेगा, वैसे ही तुम भी पहले नहीं थे, तुम्हारा जन्म हुआ, तुम मर जाओगे-यह बात नहीं है। जैसे बीज से अंकुर और अंकुर से बीज की उत्पत्ति होती है, वैसे ही एक देह से दूसरे देह की और दूसरे देह से तीसरे की उत्पत्ति होती है। किन्तु तुम न तो किसी से उत्पन्न हुए हो और न तो आगे पुत्र-पौत्रादिकों के शरीर के रूप में उत्पन्न होओगे। अजी, जैसे आग लकड़ी से सर्वथा अलग रहती है-लकड़ी की उत्पत्ति और विनाश से सर्वथा परे, वैसे ही तुम भी शरीर आदि से सर्वथा अलग हो।

स्वप्नावस्था में ऐसा मालूम होता है कि मेरा सिर कट गया है और मैं मर गया हूँ, मुझे लोग श्मशान में जला रहे हैं; परन्तु ये सब शरीर की ही अवस्थाएँ दीखती हैं, आत्मा की नहीं। देखने वाला तो उन अवस्थाओं से सर्वथा परे, जन्म और मृत्यु से रहित, शुद्ध-बुद्ध परमतत्त्वस्वरूप है। जैसे घड़ा फूट जाने पर आकाश पहले की ही भाँति अखण्ड रहता है, परन्तु घटाकाशता की निवृत्ति हो जाने से लोगों को ऐसा प्रतीत होता है कि वह महाकाश से मिल गया है-वास्तव में तो वह मिला हुआ था ही, वैसे ही देहपात हो जाने पर ऐसा मालूम पड़ता है मानो जीव ब्रह्म हो गया। वास्तव में तो वह ब्रह्म था ही, उसकी अब्रह्मता तो प्रतीति मात्र थी। मन ही आत्मा के लिये शरीर, विषय और कर्मों की कल्पना कर लेता है; और उस मन की सृष्टि करती है माया (अविद्या)। वास्तव में माया ही जीव के संसार-चक्र में पड़ने का कारण है।

जब तक तेल, तेल रखने का पात्र, बत्ती और आग का संयोग रहता है, तभी तक दीपक में दीपकपना है; वैसे ही उनके ही समान जब तक आत्मा का कर्म, मन, शरीर और इसमें रहने वाले चैतन्याध्यास के साथ सम्बन्ध रहता है, तभी तक उसे जन्म-मृत्यु के चक्र संसार में भटकना पड़ता है और रजोगुण, सत्त्वगुण तथा तमोगुण की वृत्तियों से उसे उत्पन्न, स्थित एवं विनष्ट होना पड़ता है। परन्तु जैसे दीपक के बुझ जाने से तत्त्वरूप तेज का विनाश नहीं होता, वैसे ही संसार का नाश होने पर भी स्वयंप्रकाश आत्मा का नाश नहीं होता। क्योंकि वह कार्य और कारण, व्यक्त और अव्यक्त सबसे परे है, वह आकाश के समान सबका आधार है, नित्य और निश्चल है, वह अनन्त है। सचमुच आत्मा की उपमा आत्मा ही है।

हे राजन्! तुम अपनी विशुद्ध एवं विवेकवती बुद्धि को परमात्मा के चिन्तन से भरपूर कर लो और स्वयं ही अपने अन्तर में स्थित परमात्मा का साक्षात्कार करो।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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