श्रीमद्भागवत महापुराण तृतीय स्कन्ध अध्याय 23 श्लोक 1-11

तृतीय स्कन्ध: त्रयोविंश अध्याय

Prev.png

श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: त्रयोविंश अध्यायः श्लोक 1-11 का हिन्दी अनुवाद


कर्दम और देवहूति का विहार

श्रीमैत्रेय जी ने कहा- विदुर जी! माता-पिता के चले जाने पर पति के अभिप्राय को समझ लेने में कुशल साध्वी देवहूति कर्दम जी की प्रतिदिन प्रेमपूर्वक सेवा करने लगी, ठीक उसी तरह, जैसे श्रीपार्वती जी भगवान् शंकर की सेवा करती हैं। उसने काम-वासना, दम्भ, द्वेष, लोभ, पाप और मद का त्याग कर बड़ी सावधानी और लगन के साथ सेवा में तत्पर रहकर विश्वास, पवित्रता, गौरव, संयम, शुश्रूषा, प्रेम और मधुर भाषणादि गुणों से अपने परम तेजस्वी पतिदेव को सन्तुष्ट कर लिया। देवहूति समझती थी कि मेरे पतिदेव दैव से भी बढ़कर हैं, इसलिये वह उनसे बड़ी-बड़ी आशाएँ रखकर उनकी सेवा में लगी रहती थी। इस प्रकार बहुत दिनों तक अपना अनुवर्तन करने वाली उस मनुपुत्री को व्रतादि का पालन करने से दुर्बल हुई देख देवर्षिश्रेष्ठ कर्दम को दयावश कुछ खेद हुआ और उन्होंने उससे प्रेमगद्गद वाणी में कहा।

कर्दम जी बोले- मनुनन्दिनी! तुमने मेरा बड़ा आदर किया है। मैं तुम्हारी उत्तम सेवा और परम भक्ति से बहुत सन्तुष्ट हूँ। सभी देहधारियों को अपना शरीर बहुत प्रिय एवं आदर की वस्तु होता है, किन्तु तुमने मेरी सेवा के आगे उसके क्षीण होने की भी कोई परवा नहीं की। अतः अपने धर्म का पालन करते रहने से मुझे तप, समाधि, उपासना और योग के द्वारा जो भय और शोक से रहित भगवत्प्रसाद-स्वरूप विभूतियाँ प्राप्त हुईं हैं, उन पर मेरी सेवा के प्रभाव से अब तुम्हारा भी अधिकार हो गया है। मैं तुम्हें दिव्य-दृष्टि प्रदान करता हूँ, उसके द्वारा तुम उन्हें देखो। अन्य जितने भी भोग हैं, वे तो भगवान् श्रीहरि के भ्रुकुटि-विलासमात्र से नष्ट हो जाते हैं; अतः वे इनके आगे कुछ भी नहीं है। तुम मेरी सेवा से भी कृतार्थ हो गयी हो; अपने पातिव्रत-धर्म का पालन करने से तुम्हें ये दिव्य भोग प्राप्त हो गये हैं, तुम इन्हें भोग सकती हो। हम राजा हैं, हमें सब कुछ सुलभ है, इस प्रकार जो अभिमान आदि विकार हैं, उनके रहते हुए मनुष्यों को इन दिव्य भोगों की प्राप्ति होनी कठिन है।

कर्दम जी के इस प्रकार कहने से अपने पतिदेव को सम्पूर्ण योगमाया और विद्याओं में कुशल जानकर उस अबला की सारी चिन्ता जाती रही। उसका मुख किंचित् संकोच भरी चितवन और मधुर मुस्कान से खिल उठा और वह विनय एवं प्रेम से गद्गद वाणी में इस प्रकार कहने लगी।

देवहूति ने कहा- द्विजश्रेष्ठ! स्वामिन्! मैं यह जानती हूँ कि कभी निष्फल न होने वाली योगशक्ति और त्रिगुणात्मिक माया पर अधिकार रखने वाले आपको ये सब ऐश्वर्य प्राप्त हैं। किन्तु प्रभो! आपने विवाह के समय जो प्रतिज्ञा की थी कि गर्भाधान होने तक मैं तुम्हारे साथ गृहस्थ-सुख का उपभोग करूँगा, उसकी अब पूर्ति होनी चाहिये। क्योंकि श्रेष्ठ पति के द्वारा सन्तान प्राप्त होना पतिव्रता स्त्री के लिये महान् लाभ है। हम दोनों के समागम के लिये शास्त्र के अनुसार जो कर्तव्य हो, उसका आप उपदेश दीजिये और उबटन, गन्ध, भोजन आदि उपयोगी सामग्रियाँ भी जुटा दीजिये, जिससे मिलन की इच्छा से अत्यन्त दीन दुर्बल हुआ मेरा यह शरीर आपके अंग-संग के योग्य हो जाये; क्योंकि आपकी ही बढ़ायी हुई कामवेदना से मैं पीड़ित हो रही हूँ। स्वामिन्! इस कार्य के लिये एक उपयुक्त भवन तैयार हो जाये, इसका भी विचार कीजिये।

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख


वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः