श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 41 श्लोक 1-15

दशम स्कन्ध: एकचत्वारिंशोऽध्यायः अध्याय (पूर्वार्ध)

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श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: एकचत्वारिंशोऽध्यायः श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद

श्री शुकदेव जी कहते हैं - परीक्षित! अक्रूर जी इस प्रकार स्तुति कर रही थे। उन्हें भगवान श्रीकृष्ण ने जल में अपने दिव्यरूप के दर्शन कराये और फिर उसे छिपा लिया, ठीक वैसे ही जैसे कोई नट अभिनय में कोई रूप दिखाकर फिर उसे परदे की ओट में छिपा दे। जब अक्रूर जी ने देखा कि भगवान का वह दिव्यरूप अन्तर्धान हो गया, तब वे जल से बाहर निकल आये और फिर जल्दी-जल्दी सारे आवश्यक कर्म समाप्त करके रथ पर चले आये। उस समय वे बहुत ही विस्मित हो रहे थे। भगवान श्रीकृष्ण ने उनसे पूछा - ‘चाचा जी! आपने पृथ्वी, आकाश या जल में कोई अद्भुत वस्तु देखी है क्या? क्योंकि आपकी आकृति देखने से ऐसा ही जान पड़ता है।'

अक्रूर जी ने कहा - ‘प्रभो! पृथ्वी, आकाश या जल में और सारे जगत में जितने भी अद्भुत पदार्थ हैं, वे सब आपमें ही हैं। क्योंकि आप विश्वरूप हैं। जब मैं आपको ही देख रहा हूँ तब ऐसी कौन-सी अद्भुत वस्तु रह जाती है, जो मैंने न देखी हो। भगवन! जितनी भी वस्तुएँ हैं, वे पृथ्वी में हों या जल अथवा आकाश में - सब-की-सब जिनमें हैं, उन्हीं आपको मैं देख रहा हूँ! फिर भला, मैंने यहाँ अद्भुत वस्तु कौन-सी देखी?

गान्दिनीनन्दन अक्रूर जी ने यह कहकर रथ हाँक दिया और भगवान श्रीकृष्ण तथा बलरामजी को लेकर दिन ढलते-ढलते वे मथुरापुरी जा पहुँचे। परीक्षित! मार्ग में स्थान-स्थान पर गाँवों के लोग मिलने के लिये आते और भगवान श्रीकृष्ण तथा बलराम जी को देखकर आनन्दमग्न हो जाते। वे एकटक उनकी ओर देखने लगते, अपनी दृष्टि हटा न पाते।

नन्दबाबा आदि व्रजवासी तो पहले से ही वहाँ पहुँच गये थे, और मथुरापुरी के बाहरी उपवन में रुककर उनकी प्रतीक्षा कर रहे थे। उनके पास पहुँचकर जगदीश्वर भगवान श्रीकृष्ण ने विनीतभाव से खड़े अक्रूर जी का हाथ अपने हाथ में लेकर मुस्कराते हुए कहा - ‘चाचा जी! आप रथ लेकर पहले मथुरापुरी में प्रवेश कीजिये और अपने घर जाइये। हम लोग पहले यहाँ उतरकर फिर नगर देखने के लिये आयेंगें।'

अक्रूर जी ने कहा - प्रभो! आप दोनों के बिना मैं मथुरा में नहीं जा सकता। स्वामी! मैं आपका भक्त हूँ! भक्तवत्सल प्रभो! आप मुझे मत छोडिये। भगवन! आइये, चलें। मेरे परम हितैषी और सच्चे सुहृद भगवन! आप बलराम जी, ग्वालबालों तथा नन्दराय जी आदि आत्मीयों के साथ चलकर हमारा घर सनाथ कीजिये। हम गृहस्थ हैं। आप अपने चरणों की धूलि से हमारा घर पवित्र कीजिये।

आपके चरणों की धोवन[1] से अग्नि, देवता, पितर - सब-के-सब तृप्त हो जाते हैं। प्रभो! आपके युगल चरणों को पखारकर महात्मा बलि ने वह यश प्राप्त किया, जिसका गान सन्त पुरुष करते हैं। केवल यश ही नहीं - उन्हें अतुलनीय ऐश्वर्य तथा वह गति प्राप्त हुई, जो अनन्य प्रेमी भक्तों को प्राप्त होती है। आपके चरणोदक - गंगा जी ने तीनों लोक पवित्र कर दिये। सचमुच वे मूर्तिमान पवित्रता हैं। उन्हीं के स्पर्श से सगर के पुत्रों को सद्गति प्राप्त हुई और उसी जल को स्वयं भगवान शंकर ने अपने सिर पर धारण किया।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. गंगाजल या चरणामृत

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