श्रीमद्भागवत महापुराण अष्टम स्कन्ध अध्याय 1 श्लोक 1-13

अष्टम स्कन्ध: प्रथमोऽध्याय: अध्याय

Prev.png

श्रीमद्भागवत महापुराण: अष्टम स्कन्ध: प्रथम अध्यायः श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद


मन्वन्तरों का वर्णन

राजा परीक्षित ने पूछा- गुरुदेव! स्वायम्भुव मनु का वंश-विस्तार मैंने सुन लिया। इसी वंश में उनकी कन्याओं के द्वारा मरीचि आदि प्रजापतियों ने अपनी वंश परम्परा चलायी थी। अब आप हमसे दूसरे मनुओं का वर्णन कीजिये। ब्रह्मन्! ज्ञानी महात्मा जिस-जिस मन्वन्तर में महामहिम भगवान के जिन-जिन अवतारों और लीलाओं का वर्णन करते हैं, उन्हें आप अवश्य सुनाइये। हम बड़ी श्रद्धा से उनका श्रवण करना चाहते हैं। भगवन्! विश्वभावन भगवान बीते हुए मन्वन्तरों में जो-जो लीलाएँ कर चुके हैं, वर्तमान मन्वन्तर में जो कर रहे हैं और आगामी मन्वन्तरों में जो कुछ करेंगे, वह सब हमें सुनाइये।

श्रीशुकदेव जी ने कहा- इस कल्प में स्वायम्भुव आदि छः मन्वन्तर बीत चुके हैं। उनमें से पहले मन्वन्तर का मैंने वर्णन कर दिया, उसी में देवता आदि की उत्पत्ति हुई थी। स्वायम्भुव मनु की पुत्री आकूति से यज्ञपुरुष के रूप में उपदेश करने के लिये तथा देवहूति से कपिल के रूप में ज्ञान का उपदेश करने के लिए भगवान ने उनके पुत्ररूप से अवतार ग्रहण किया था।

परीक्षित! भगवान कपिल का वर्णन मैं पहले ही (तीसरे स्कन्ध में) कर चुका हूँ। अब भगवान यज्ञपुरुष ने आकूति के गर्भ से अवतार लेकर जो कुछ किया, उसका वर्णन करता हूँ।

परीक्षित! भगवान स्वायम्भुव मनु ने समस्त कामनाओं और भोगों से विरक्त होकर राज्य छोड़ दिया। वे अपनी पत्नी शतरूपा के साथ तपस्या करने के लिये वन में चले गये। परीक्षित! उन्होंने सुनन्दा नदी के किनारे पृथ्वी पर एक पैर से खड़े रहकर सौ वर्ष तक घोर तपस्या की। तपस्या करते समय वे प्रतिदिन इस प्रकार भगवान की स्तुति करते थे।

मनु जी कहा करते थे- जिनकी चेतना के स्पर्शमात्र से यह विश्व चेतन हो जाता है, किन्तु यह विश्व जिन्हें चेतना का दान नहीं कर सकता; जो इसके सो जाने पर प्रलय में भी जागते रहते है, जिनको यह नहीं जान सकता, परन्तु जो इसे जानते हैं- वही परमात्मा हैं। यह सम्पूर्ण विश्व और इस विश्व में रहने वाले समस्त चर-अचर प्राणी- सब उन परमात्मा से ही ओतप्रोत हैं। इसलिये संसार के किसी भी पदार्थ में मोह न करके उसका त्याग करते हुए ही जीवन-निर्वाह मात्र के लिये उपभोग करना चाहिये। तृष्णा का सर्वथा त्याग कर देना चाहिये। भला, ये संसार की सम्पत्तियाँ किसकी हैं? भगवान सबके साक्षी हैं। उन्हें बुद्धि-वृत्तियाँ या नेत्र आदि इन्द्रियाँ नहीं देख सकतीं। परन्तु उनकी ज्ञानशक्ति अखण्ड है। समस्त प्राणियों के हृदय में रहने वाले उन्हीं स्वयंप्रकाश असंग परमात्मा की शरण ग्रहण करो। जिनका न आदि है न अन्त, फिर मध्य होगा ही कहाँ से? जिनका न कोई अपना है और न पराया और न बाहर है न भीतर, वे विश्व के आदि, अन्त, मध्य, अपने-पराये, बाहर और भीतर- सब कुछ हैं। उन्हीं की सत्ता से विश्व की सत्ता है। वही अनन्त वास्तविक सत्य परब्रह्म हैं। वही परमात्मा विश्वरूप हैं। उनके अनन्त नाम हैं। वे सर्वशक्तिमान् सत्य, स्वयंप्रकाश, अजन्मा और पुराणपुरुष हैं। वे अपनी मायाशक्ति के द्वारा ही विश्वसृष्टि के जन्म आदि को स्वीकार कर लेते हैं और अपनी विद्याशक्ति के द्वारा उसका त्याग करके निष्क्रिय, सत्स्वरूप मात्र रहते हैं।

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः