श्रीमद्भागवत महापुराण तृतीय स्कन्ध अध्याय 29 श्लोक 1-19

तृतीय स्कन्ध: एकोनत्रिंश अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: एकोनत्रिंश अध्यायः श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद


भक्ति का मर्म और काल की महिमा

देवहूति ने पूछा- प्रभो! प्रकृति, पुरुष और महत्तत्त्वादि का जैसा लक्षण सांख्यशास्त्र में कहा गया है तथा जिसके द्वारा उनका वास्तविक स्वरूप अलग-अलग जाना जाता है और भक्तियोग को ही जिसका प्रयोजन कहा गया है, वह आपने मुझे बताया। अब कृपा करके भक्तियोग का मार्ग मुझे विस्तारपूर्वक बताइये। इसके सिवा जीवों की जन्म-मरणरूपा अनेक प्रकार की गतियों का भी वर्णन कीजिये; जिनके सुनने से जीव को सब प्रकार की वस्तुओं से वैराग्य होता है। जिसके भय से लोग शुभ कर्मों में प्रवृत्त होते हैं और जो ब्रह्मादि का भी शासन करने वाला है, उस सर्वसमर्थ काल का स्वरूप भी आप मुझसे कहिये। ज्ञानदृष्टि के लुप्त हो जाने के कारण देहादि मिथ्या वस्तुओं में जिन्हें आत्माभिमान हो गया तथा बुद्धि के कर्मासक्त रहने के कारण अत्यन्त श्रमिक होकर जो चिरकाल से अपार अन्धकारमय संसार में सोये पड़े हैं, उन्हें जगाने के लिये आप योगप्रकाशक सूर्य ही प्रकट हुए हैं।

श्रीमैत्रेय जी कहते हैं- कुरुश्रेष्ठ विदुर जी! माता के ये मनोहर वचन सुनकर महामुनि कपिल जी ने उनकी प्रशंसा की और जीवों के प्रति दया से द्रवित हो बड़ी प्रसन्नता के साथ उनसे इस प्रकार बोले-

श्रीभगवान् ने कहा- माताजी! साधकों के भाव के अनुसार भक्तियोग का अनेक प्रकार से प्रकाश होता है, क्योंकि स्वभाव और गुणों के भेद से मनुष्यों के भाव में भी विभिन्नता आ जाती है। जो भेददर्शी क्रोधी पुरुष हृदय में हिंसा, दम्भ अथवा मात्सर्य का भाव रखकर मुझसे प्रेम करता है, वह मेरा तामस भक्त है। जो पुरुष विषय, यश और ऐश्वर्य की कामना से प्रतिमादि में मेरा भेदभाव से पूजन करता है, वह राजस भक्त है। जो व्यक्ति पापों का क्षय करने के लिये, परमात्मा को अर्पण करने के लिये और मेरा पूजन करना कर्तव्य है-इस बुद्धि से मेरा भेदभाव से पूजन करता है, वह सात्त्विक भक्त है। जिस प्रकार गंगा का प्रवाह अखण्ड रूप से समुद्र की ओर बहता रहता है, उसी प्रकार मेरे गुणों के श्रवणमात्र से मन की गति का तैल धारावत् अविच्छिन्न रूप से मुझ सर्वान्तर्यामी के प्रति हो जाना तथा मुझ पुरुषोत्तम में निष्काम और अनन्य प्रेम होना-यह निर्गुण भक्तियोग का लक्षण कहा गया है। ऐसे निष्काम भक्त, दिये जाने पर भी, मेरी सेवा को छोड़कर सालोक्य[1], सार्ष्टि[2], सामीप्य[3] और सारूप्य[4] और सायुज्य[5] मोक्ष तक नहीं लेते-भगवत् सेवा के लिये मुक्ति का तिरस्कार करने वाला यह भक्तियोग ही परम पुरुषार्थ अथवा साध्य कहा गया है। इसके द्वारा पुरुष तीनों गुणों को लाँघकर मेरे भाव-मेरे प्रेमरूप अप्राकृत स्वरूप को प्राप्त हो जाता है।

निष्कामभाव से श्रद्धापूर्वक अपने नित्य-नैमित्तिक कर्तव्यों का पालन कर, नित्यप्रति हिंसारहित उत्तम क्रियायोग का अनुष्ठान करने, मेरी प्रतिमा का दर्शन, स्पर्श, पूजा, स्तुति और वन्दना करने, प्राणियों में मेरी भावना करने, धैर्य और वैराग्य के अवलम्बन, महापुरुषों का मान, दीनों पर दया और समान स्थिति वालों के प्रति मित्रता का व्यवहार करने, यम-नियमों का पालन, अध्यात्म शास्त्रों का श्रवण और मेरे नामों का उच्च स्वर से कीर्तन करने से तथा मन की सरलता, सत्पुरुषों के संग और अहंकार के त्याग से मेरे धर्मों का (भागवत धर्मों का) अनुष्ठान करने वाले भक्तपुरुष का चित्त अत्यन्त शुद्ध होकर मेरे गुणों के श्रवणमात्र से अनायास ही मुझमें लग जाता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. भगवान् के नित्य धाम में निवास
  2. भगवान् के समान ऐश्वर्य भोग
  3. भगवान् की नित्य समीपता
  4. भगवान् का-सा रूप
  5. भगवान् के विग्रह में समा जाना, उनसे एक हो जाना या ब्रह्मरूप प्राप्त कर लेना।

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