श्रीमद्भागवत महापुराण पंचम स्कन्ध अध्याय 22 श्लोक 1-9

पंचम स्कन्ध: द्वाविंश अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: पंचम स्कन्ध: द्वाविंश अध्यायः श्लोक 1-9 का हिन्दी अनुवाद


भिन्न-भिन्न ग्रहों की स्थिति और गति का वर्णन

राजा परीक्षित ने पूछा- भगवन्! आपने जो कहा कि यद्यपि भगवान् सूर्य राशियों की ओर जाते समय मेरु और ध्रुव को दायीं ओर रखकर चलते मालूम होते हैं, किन्तु वस्तुतः उनकी गति दक्षिणावर्त नहीं होती- इस विषय को हम किस प्रकार समझें?

श्रीशुकदेव जी कहते हैं- राजन्! जैसे कुम्हार के घूमते हुए चाक पर बैठकर उसके साथ घूमती हुई चींटी आदि की अपनी गति उससे भिन्न ही है, क्योंकि वह भिन्न-भिन्न समय में उस चक्र के भिन्न-भिन्न स्थानों में देखी जाती है- उसी प्रकार नक्षत्र और राशियों से उपलक्षित कालचक्र में पड़कर ध्रुव और मेरु को दायें रखकर घूमने वाले सूर्य आदि ग्रहों की गति वास्तव में उससे भिन्न ही है; क्योंकि वे कालभेद से भिन्न-भिन्न राशि और नक्षत्रों में देख पड़ते हैं।

वेद और विद्वान् लोग भी जिनकी गति को जानने के लिये उत्सुक रहते हैं, वे साक्षात् आदि पुरुष भगवान् नारायण ही लोकों के कल्याण और कर्मों की शुद्धि के लिये अपने वेदमय विग्रह काल को बारह मासों में विभक्त कर वसन्तादि छः ऋतुओं में उनके यथायोग्य गुणों का विधान करते हैं। इस लोक में वर्णाश्रम धर्म का अनुसरण करने वाले पुरुष वेदत्रयी द्वारा प्रतिपादित छोटे-बड़े कर्मों से इन्द्रादि देवताओं के रूप में और योग के साधनों से अन्तर्यामीरूप में उनकी श्रद्धापूर्वक आराधना करके सुगमता से ही परमपद प्राप्त कर सकते हैं। भगवान् सूर्य सम्पूर्ण लोकों के आत्मा हैं। वे पृथ्वी और द्युलोक के मध्य में स्थित आकाश मण्डल के भीतर कालचक्र में स्थित होकर बारह मासों को भोगते हैं, जो संवत्सर के अवयव हैं और मेष आदि राशियों के नाम से प्रसिद्ध हैं। इनमें से प्रत्येक मास चन्द्रमा से शुक्ल और कृष्ण दो पक्ष का, पितृमान से एक रात और एक दिन का तथा सौरमान से सवा दो नक्षत्र का बताया जाता है। जितने काल के सूर्यदेव इस संवत्सर का छठा भाग भोगते हैं, उसका वह अवयव ‘ऋतु’ कहा जाता है। आकाश में भगवान् सूर्य का जितना मार्ग है, उसका आधा वे जितने समय में पार कर लेते हैं, उसे एक ‘अयन’ कहते हैं तथा जितने समय में वे अपनी मन्द, तीव्र और समान गति से स्वर्ग और पृथ्वीमण्डल के सहित पूरे आकाश का चक्कर लगा जाते हैं, उसे अवान्तर भेद से संवत्सर, परिवत्सर, इडावत्सर, अनुवत्सर अथवा वत्सर कहते हैं।

इसी प्रकार सूर्य की किरणों से एक लाख योजन ऊपर चन्द्रमा है। उसकी चाल बहुत तेज है, इसलिये वह सब नक्षत्रों से आगे रहता है। यह सूर्य के एक वर्ष के मार्ग को एक मास में, एक मास के मार्ग को सवा दो दिनों में और एक पक्ष के मार्ग को एक ही दिन में तै कर लेता है। यह कृष्ण पक्ष में क्षीण होती हुई कलाओं से पितृगण के और शुक्ल पक्ष में बढ़ती हुई कलाओं से देवताओं के दिन-रात का विभाग करता है तथा तीस-तीस मुहूर्तों में एक-एक नक्षत्र को पार करता है। अन्नमय और अमृतमय होने के कारण यही समस्त जीवों का प्राण और जीवन है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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