प्रथम स्कन्ध: सप्तम अध्याय
श्रीमद्भागवत महापुराण: प्रथम स्कन्धः सप्तम अध्यायः श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद
श्रीशौनक जी ने पूछा- सूत जी! सर्वज्ञ एवं सर्वशक्तिमान् व्यास भगवान ने नारद जी का अभिप्राय सुन लिया। फिर उनके चले जाने पर उन्होंने क्या किया? श्रीसूत जी ने कहा- ब्रह्मनदी सरस्वती के पश्चिम तट पर शम्याप्रास नाम का एक आश्रम है। वहाँ ऋषियों के यज्ञ चलते ही रहते हैं। वहीं व्यास जी का अपना आश्रम है। उसके चारों ओर बेर का सुन्दर वन है। उस आश्रम में बैठकर उन्होंने आचमन किया और स्वयं अपने मन को समाहित किया। उन्होंने भक्तियोग के द्वारा अपने मन को पूर्णतया एकाग्र और निर्मल करके आदि पुरुष परमात्मा और उनके आश्रय से रहने वाली माया को देखा। इसी माया से मोहित होकर यह जीव तीनों गुणों से अतीत होने पर भी अपने को त्रिगुणात्मक मान लेता है और इस मान्यता के कारण होने वाले अनर्थों को भोगता है। इन अनर्थों की शान्ति का साक्षात् साधन है- केवल भगवान का भक्ति-योग। परन्तु संसार के लोग इस बात को नहीं मानते। यही समझकर उन्होंने परमहंसों की संहिता श्रीमद्भावत की रचना की। इसके श्रवण मात्र से पुरुषोत्तम भगवान श्रीकृष्ण के प्रति परम प्रेममयी भक्ति हो जाती है, जिससे जीव के शोक, मोह और भय नष्ट हो जाते हैं। उन्होंने इस भागवत-संहिता का निर्माण और पुनरावृत्ति करके इसे अपने निवृत्ति परायणपुत्र श्रीशुकदेव जी को पढ़ाया। श्रीशौनक जी ने पूछा- श्रीशुकदेव जी तो अत्यन्त निवृत्ति परायण हैं, उन्हें किसी भी वस्तु की अपेक्षा नहीं है। वे सदा आत्मा में ही रमण करते हैं। फिर उन्होंने किसलिये इस विशाल ग्रन्थ का अध्ययन किया? श्रीसूत जी ने कहा- जो लोग अज्ञानी हैं, जिनकी अविद्या की गाँठ खुल गयी है और जो सदा आत्मा में ही रमण करने वाले हैं, वे भी भगवान की हेतु रहित भक्ति किया करते हैं; क्योंकि भगवान के गुण ही ऐसे मधुर हैं, जो सबको अपनी ओर खींच लेते हैं। फिर श्रीशुकदेव जी तो भगवान के भक्तों के अत्यन्त प्रिय और स्वयं भगवान वेदव्यास के पुत्र हैं। भगवान के गुणों ने उनके हृदय को अपनी ओर खींच लिया और उन्होंने उससे विवश होकर ही इस विशाल ग्रन्थ का अध्ययन किया। शौनक जी! अब मैं राजर्षि परीक्षित के जन्म, कर्म और मोक्ष की तथा पाण्डवों के स्वर्गारोहण की कथा कहता हूँ; क्योंकि इन्हीं से भगवान श्रीकृष्ण की अनेकों कथाओं का उदय होता है। जिस समय महाभारत युद्ध में कौरव और पाण्डव दोनों पक्षों के बहुत-से वीर वीरगति को प्राप्त हो चुके थे और भीमसेन की गदा के प्रहार से दुर्योधन की जाँघ टूट चुकी थी, तब अश्वत्थामा ने अपने स्वामी दुर्योधन का प्रिय कार्य समझकर द्रौपदी के सोते हुए पुत्रों के सिर काटकर उसे भेंट किये, यह घटना दुर्योधन को भी अप्रिय ही लगी; क्योंकि ऐसे नीच कर्म की सभी निन्दा करते हैं। उन बालकों की माता द्रौपदी अपने पुत्रों का निधन सुनकर अत्यन्त दुःखी हो गयी। उसकी आँखों में आँसू छलछला आये- वह रोने लगी। अर्जुन ने उसे सान्त्वना देते हुए कहा- ‘कल्याणि! मैं तुम्हारे आँसू तब पोछूँगा, जब उस आततायी[1] ब्राह्मणाधम का सिर गाण्डीव धनुष के बाणों से काटकर तुम्हें भेंट करूँगा और पुत्रों की अन्त्येष्टि क्रिया के बाद तुम उस पर पैर रखकर स्नान करोगी’। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ आग लगाने वाला, जहर देने वाला, बुरी नीयत से हाथ में शस्त्र ग्रहण करने वाला, धन लूटने वाला, खेत और स्त्री को छीनने वाला- ये छः ‘आततायी’ कहलाते हैं।
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