श्रीमद्भागवत महापुराण पंचम स्कन्ध अध्याय 18 श्लोक 1-10

पंचम स्कन्ध: अष्टादश अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: पंचम स्कन्ध: अष्टादश अध्यायः श्लोक 1-10 का हिन्दी अनुवाद


भिन्न-भिन्न वर्षों का वर्णन

श्रीशुकदेव जी कहते हैं- राजन्! भद्राश्व वर्ष में धर्मपुत्र भद्रश्रवा और उनके मुख्य-मुख्य सेवक भगवान् वासुदेव की हयग्रीवसंज्ञक धर्ममयी प्रिय मूर्ति को अत्यन्त समाधि निष्ठा के द्वारा हृदय में स्थापित कर इस मन्त्र का जप करते हुए इस प्रकार स्तुति करते हैं।

भद्रश्रवा और उनके सेवक कहते हैं- ‘चित्त को विशुद्ध करने वाले ओंकारस्वरूप भगवान् धर्म को नमस्कार हैं’।

अहो! भगवान् की लीला बड़ी विचित्र है, जिसके कारण यह जीव सम्पूर्ण लोकों का संहार करने वाले काल को देखकर भी नहीं देखता और तुच्छ विषयों का सेवन करने के लिये पापमय विचारों की उधेड़-बुन में लगा हुआ अपने ही हाथों अपने पुत्र और पितादि की लाश को जलाकर भी स्वयं जीते रहने की इच्छा करता है। विद्वान् लोग जगत् को नश्वर बताते हैं और सूक्ष्मदर्शी आत्मज्ञानी ऐसा ही देखते भी हैं; तो भी जन्मरहित प्रभो! आपकी माया से लोग मोहित हो जाते हैं। आप अनादि हैं तथा आपके कृत्य बड़े विस्मयजनक हैं, मैं आपको नमस्कार करता हूँ।

परमात्मन्! आप अकर्ता और माया के आवरण से रहित हैं तो भी जगत् की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय- ये आपके ही कर्म माने गये हैं। सो ठीक ही है, इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है। क्योंकि सर्वात्मरूप से आप ही सम्पूर्ण कार्यों के कारण हैं और अपने शुद्धस्वरूप में इस कार्य-कारण भाव से सर्वथा अतीत हैं। आपका विग्रह मनुष्य और घोड़े का संयुक्त रूप है। प्रलयकाल में जब तमःप्रधान दैत्यगण वेदों को चुरा ले गये थे, तब ब्रह्मा जी के प्रार्थना करने पर आपने उन्हें रसातल से लाकर दिया। ऐसे अमोघ लीला करने वाले सत्यसंकल्प आपको मैं नमस्कार करता हूँ।

हरिवर्षखण्ड में भगवान् नृसिंह रूप से रहते हैं। उन्होंने यह रूप जिस कारण से धारण किया था, उसका आगे (सप्तम स्कन्ध में) वर्णन किया जायेगा। भगवान् के उस प्रिय रूप की महाभागवत प्रह्लाद जी उस वर्ष के अन्य पुरुषों के सहित निष्काम एवं अनन्य भक्तिभाव से उपासना करते हैं। ये प्रह्लाद जी महापुरुषोंचित गुणों से सम्पन्न हैं तथा इन्होंने अपने शील और आचरण से दैत्य और दानवों के कुल को पवित्र कर दिया है। वे इस मन्त्र तथा स्तोत्र का जप-पाठ करते हैं। ‘ओंकारस्वरूप भगवान् श्रीनृसिंहदेव को नमस्कार है। आप अग्नि आदि तेजों के भी तेज हैं, आपको नमस्कार है। हे वज्रनख! हे वज्रदंष्ट्र! आप हमारे समीप प्रकट होइये, प्रकट होइये; हमारी कर्म-वासनाओं को जला डालिये, जला डालिये। हमारे अज्ञानरूप अन्धकार को नष्ट कीजिये, नष्ट कीजिये। ॐ स्वाहा। हमारे अन्तःकरण में अभयदान देते हुए प्रकाशित होइये। ॐ क्ष्रौम्’। ‘नाथ! विश्व का कल्याण हो, दुष्टों की बुद्धि शुद्ध हो, सब प्राणियों में परस्पर सद्भावना हो, सभी एक-दूसरे का हितचिन्तन करें, हमारा मन शुभ मार्ग में प्रवृत्त हो और हम सबकी बुद्धि निष्काम-भाव से भगवान् श्रीहरि में प्रवेश करे।

प्रभो! घर, स्त्री, पुत्र, धन और भाई-बन्धुओं में हमारी आसक्ति न हो; यदि हो तो केवल भगवान् के प्रेमी भक्तों में ही। जो संयमी पुरुष केवल शरीर-निर्वाह के योग्य अन्नादि से सन्तुष्ट रहता है, उसे जितनी शीघ्र सिद्धि प्राप्त होती है, वैसी इन्द्रिय-लोलुप पुरुष को नहीं होती।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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