श्रीमद्भागवत महापुराण चतुर्थ स्कन्ध अध्याय 6 श्लोक 1-16

चतुर्थ स्कन्ध: षष्ठ अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: षष्ठ अध्यायः श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद


ब्रह्मादि देवताओं का कैलास जाकर श्रीमहादेव जी को मनाना

श्रीमैत्रेय जी कहते हैं- विदुर जी! इस प्रकार जब रुद्र के सेवकों ने समस्त देवताओं को हरा दिया और उनके सम्पूर्ण अंग-प्रत्यंग भूत-प्रेतों के त्रिशूल, पट्टिश, खड्ग, गदा, परिघ और मुद्गर आदि आयुधों से छिन्न-भिन्न हो गये, तब वे ऋत्विज् और सदस्यों के सहित बहुत ही डरकर ब्रह्मा जी के पास पहुँचे और प्रणाम करके उन्हें सारा वृतान्त कह सुनाया। भगवान् ब्रह्मा जी और सर्वान्तर्यामी श्रीनारायण पहले से ही इस भावी उत्पात को जानते थे, इसी से वे दक्ष के यज्ञ में नहीं गये थे। अब देवताओं के मुख से वहाँ की सारी बात सुनकर उन्होंने कहा, ‘देवताओं! परम समर्थ तेजस्वी पुरुष से कोई दोष भी बन जाये तो भी उसके बदले में अपराध करने वाले मनुष्यों का भला नहीं हो सकता। फिर तुम लोगों ने तो यज्ञ में भगवान् शंकर का प्राप्य भाग ने देकर उनका बड़ा भारी अपराध किया है। परन्तु शंकर जी बहुत शीघ्र प्रसन्न होने वाले हैं, इसलिये तुम लोग शुद्ध हृदय से उनके पैर पकड़कर उन्हें प्रसन्न करो-उनसे क्षमा माँगो। दक्ष के दुर्वचनरूपी बाणों से उनका हृदय तो पहले से ही बिंध रहा था, उस पर उनकी प्रिया सती जी का वियोग हो गया। इसलिये यदि तुम लोग चाहते हो कि वह यज्ञ फिर से आरम्भ होकर पूर्ण हो, तो पहले जल्दी जाकर उनसे अपने अपराधों के लिये क्षमा माँगो। नहीं तो उनके कुपित होने पर लोकपालों के सहित इन समस्त लोकों का भी बचना असम्भव है। भगवान् रुद्र परम स्वतन्त्र हैं, उनके तत्त्व और शक्ति-सामर्थ्य को न तो कोई ऋषि-मुनि, देवता और यज्ञ-स्वरूप देवराज इन्द्र ही जानते हैं और न स्वयं मैं ही जानता हूँ; फिर दूसरों की तो बात ही क्या है। ऐसी अवस्था में उन्हें शान्त करने का उपाय कौन कर सकता है।

देवताओं से इस प्रकार कहकर ब्रह्मा जी उनको, प्रजापतियों को और पितरों को साथ ले अपने लोक से पर्वतश्रेष्ठ कैलास को गये, जो भगवान् शंकर का प्रिय धाम है। उस कैलास पर ओषधि, तप, मन्त्र तथा योग आदि उपायों से सिद्धि को प्राप्त हुए और जन्म से ही सिद्ध देवता नित्य निवास करते हैं; किन्नर, गन्धर्व और अप्सरादि सदा वहाँ बने रहते हैं। उसके मणिमय शिखर हैं, जो नाना प्रकार की धातुओं से रंग-बिरंगे प्रतीत होते हैं। उस पर अनेक प्रकार के वृक्ष, लता और गुल्मादि छाये हुए हैं, जिनमें झुंड-के-झुंड जंगली पशु विचरते रहते हैं। वहाँ निर्मल जल के अनेकों झरने बहते हैं और बहुत-सी गहरी कन्दरा और ऊँचे शिखरों के कारण वह पर्वत अपने प्रियतमों के साथ विहार करती हुई सिद्धपत्नियों का क्रीड़ा-स्थल बना हुआ है। वह सब ओर मोरों के शोर, मदान्ध भ्रमरों के गुंजार, कोयलों की कुहू-कुहू ध्वनि तथा अन्यान्य पक्षियों के कलरव से गूँज रहा है। उसके कल्पवृक्ष अपनी ऊँची-ऊँची डालियों को हिला-हिलाकर मानो पक्षियों को बुलाते रहते हैं। तथा हाथियों के चलने-फिरने के कारण वह कैलास स्वयं चलता हुआ-सा और झरनों की कलकल-ध्वनि से बातचीत करता हुआ-सा जान पड़ता है। मन्दार, पारिजात, सरल, तमाल, शाल, ताड़, कचनार, असन और अर्जुन के वृक्षों से वह पर्वत बड़ा ही सुहावना जान पड़ता है। आम, कदम्ब, नीप, नाग, पुन्नाग, चम्पा, गुलाब, अशोक, मौलसिरी, कुन्द, कुरबक, सुनहरे शतपत्र कमल, इलायची और मालती की मनोहर लताएँ तथा कुब्जक, मोगरा और माधवी की बेलें भी उसकी शोभा बढाती हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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