श्रीमद्भागवत महापुराण नवम स्कन्ध अध्याय 5 श्लोक 1-13

नवम स्कन्ध: पञ्चमोऽध्याय: अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: नवम स्कन्ध: पंचम अध्यायः श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद


दुर्वासा जी की दुःख निवृत्ति

श्रीशुकदेव जी कहते हैं- परीक्षित! जब भगवान् ने इस प्रकार आज्ञा दी, तब सुदर्शन चक्र की ज्वाला से जलते हुए दुर्वासा लौटकर राजा अम्बरीष के पास आये और उन्होंने अत्यन्त दुःखी होकर राजा के पैर पकड़ लिये।

दुर्वासा जी की यह चेष्टा देखकर और उनके चरण पकड़ने से लज्जित होकर राजा अम्बरीष भगवान् के चक्र की स्तुति करने लगे। उस समय उनका हृदय दयावश अत्यन्त पीड़ित हो रहा था।

अम्बरीष ने कहा- प्रभो सुदर्शन! आप अग्नि स्वरूप हैं। आप ही परमसमर्थ सूर्य हैं। समस्त नक्षत्रमण्डल के अधिपति चन्द्रमा भी आपके स्वरूप हैं। जल, पृथ्वी, आकाश, वायु, पंचतन्मात्रा और सम्पूर्ण इन्द्रियों के रूप में भी आप ही हैं। भगवान् के प्यारे, हजार दाँत वाले चन्द्रदेव! मैं आपको नमस्कार करता हूँ। समस्त अस्त्र-शस्त्रों को नष्ट कर देने वाले एवं पृथ्वी के रक्षक! आप इन ब्राह्मण की रक्षा कीजिये। आप ही धर्म हैं, मधुर एवं सत्य वाणी हैं; आप ही समस्त यज्ञों के अधिपति और स्वयं यज्ञ भी हैं। आप समस्त लोकों के रक्षक एवं सर्वलोकस्वरूप भी हैं। आप परमपुरुष परमात्मा के श्रेष्ठ तेज हैं।

सुनाभ! आप समस्त धर्मों की मर्यादा के रक्षक हैं। अधर्म का आचरण करने वाले असुरों को भस्म करने के लिये आप साक्षात् अग्नि हैं। आप ही तीनों लोकों के रक्षक एवं विशुद्ध तेजोमय हैं। आपकी गति मन के वेग के समान है और आपके कर्म अद्भुत हैं। मैं आपको नमस्कार करता हूँ, आपकी स्तुति करता हूँ।

वेदवाणी के अधीश्वर! आपके धर्ममय तेज से अन्धकार का नाश होता है और सूर्य आदि महापुरुषों के प्रकाश की रक्षा होती है। आपकी महिमा का पार पाना अत्यन्त कठिन है। ऊँचे-नीचे और छोटे-बड़े के भेदभाव से युक्त यह समस्त कार्य-कारणात्मक संसार आपका ही स्वरूप है।

सुदर्शन चक्र! आप पर कोई विजय नहीं प्राप्त कर सकता। जिस समय निरंजन भगवान् आपको चलाते हैं और आप दैत्य एवं दानवों की सेना में प्रवेश करते हैं, उस समय युद्धभूमि में उनकी भुजा, उदर, जंघा, चरण और गरदन आदि निरन्तर काटते हुए आप अत्यन्त शोभायमान होते हैं। विश्व के रक्षक! आप रणभूमि में सबका प्रहार सह लेते हैं, आपका कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता। गदाधारी भगवान् ने दुष्टों के नाश के लिये ही आपको नियुक्त किया है। आप कृपा करके हमारे कुल के भाग्योदय के लिये दुर्वासा जी का कल्याण कीजिये। हमारे ऊपर यह आपका महान् अनुग्रह होगा। यदि मैंने कुछ भी दान किया हो, यज्ञ किया हो अथवा अपने धर्म का पालन किया हो, यदि हमारे वंश के लोग ब्राह्मणों को ही अपना आराध्यदेव समझते रहे हों, तो दुर्वासा जी की जलन मिट जाये। भगवान् समस्त गुणों के एकमात्र आश्रय हैं। यदि मैंने समस्त प्राणियों के आत्मा के रूप में उन्हें देखा हो और वे मुझ पर प्रसन्न हों तो दुर्वासा जी के हृदय की सारी जलन मिट जाये।

श्रीशुकदेव जी कहते हैं- जब राजा अम्बरीष ने दुर्वासा जी को सब ओर से जलाने वाले भगवान् के सुदर्शन चक्र की इस प्रकार स्तुति की, तब उनकी प्रार्थना से चक्र शान्त हो गया। जब दुर्वासा चक्र की आग से मुक्त हो गये और उनका चित्त स्वस्थ हो गया, तब वे राजा अम्बरीष को अनेकानेक उत्तम आशीर्वाद देते हुए उनकी प्रशंसा करने लगे।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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