श्रीमद्भागवत महापुराण नवम स्कन्ध अध्याय 4 श्लोक 1-14

नवम स्कन्ध: चतुर्थोऽध्याय: अध्याय

Prev.png

श्रीमद्भागवत महापुराण: नवम स्कन्ध: चतुर्थ अध्यायः श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद


नाभाग और अम्बरीष की कथा

श्रीशुकदेव जी कहते हैं- परीक्षित! मनुपुत्र नभग का पुत्र था नाभाग। जब वह दीर्घकाल तक ब्रह्मचर्य का पालन करके लौटा, तब बड़े भाइयों ने अपने से छोटे किन्तु विद्वान् भाई को हिस्से में केवल पिता को ही दिया (सम्पत्ति तो उन्होंने पहले ही आपस में बाँट ली थी)। उसने अपने भाइयों से पूछा- ‘भाइयों! आप लोगों ने मुझे हिस्से में क्या दिया है?’ तब उन्होंने उत्तर दिया कि ‘हम तुम्हारे हिस्से में पिताजी को ही तुम्हें देते हैं।’ उसने अपने पिता से जाकर कहा- ‘पिताजी! मेरे बड़े भाइयों ने हिस्से में मेरे लिये आपको ही दिया है।’

पिता ने कहा- ‘बेटा! तुम उनकी बात न मानो। देखो, ये बड़े बुद्धिमान् आंगिरस गोत्र के ब्राह्मण इस समय एक बहुत बड़ा यज्ञ कर रहे हैं। परन्तु मेरे विद्वान् पुत्र! वे प्रत्येक छठे दिन अपने कर्म में भूल कर बैठते हैं। तुम उन महात्माओं के पास जाकर उन्हें वैश्वेदेव सम्बन्धी दो सूक्त बतला दो; जब वे स्वर्ग जाने लगेंगे, तब यज्ञ से बचा हुआ अपना सारा धन तुमें दे देंगे। इसलिये अब तुम उन्हीं के पास चले जाओ।’ उसने अपने पिता के आज्ञानुसार वैसा ही किया। उन आंगिरस गोत्री ब्राह्मणों ने भी यज्ञ का बचा हुआ धन उसे दे दिया और वे स्वर्ग में चले गये।

जब नाभाग उस धन को लेने लगा, तब उत्तर दिशा से एक काले रंग का पुरुष आया। उसने कहा- ‘इस यज्ञभूमि में जो कुछ बचा हुआ है, वह सब धन मेरा है’। नाभाग ने कहा- ‘ऋषियों ने यह धन मुझे दिया है, इसलिये मेरा है।’ इस पर उस पुरुष ने कहा- ‘हमारे विवाद के विषय में तुम्हारे पिता से ही प्रश्न किया जाये।’ तब नाभाग ने जाकर पिता से पूछा।

पिता ने कहा- ‘एक बार दक्ष प्रजापति के यज्ञ में ऋषि लोग यह निश्चय कर चुके हैं कि यज्ञभूमि में जो कुछ बच रहता है, वह सब रुद्र देव का हिस्सा है। इसलिये वह धन तो महादेव जी को ही मिलना चाहिये’।

नाभाग ने जाकर उन काले रंग के पुरुष रुद्र-भगवान को प्रणाम किया और कहा कि ‘प्रभो! यज्ञभूमि की सभी वस्तुएँ आपकी हैं, मेरे पिता ने ऐसा ही कहा है। भगवन्! मुझसे अपराध हुआ, मैं सिर झुकाकर आपसे क्षमा माँगता हूँ’। तब भगवान रुद्र ने कहा- ‘तुम्हारे पिता ने धर्म के अनुकूल निर्णय दिया है और तुमने भी मुझसे सत्य ही कहा है। तुम वेदों का अर्थ तो पहले से ही जानते हो। अब मैं तुम्हें सनातन ब्रह्मतत्त्व का ज्ञान देता हूँ। जहाँ यज्ञ में बचा हुआ मेरा जो अंश है, यह धन भी मैं तुम्हें ही दे रहा हूँ; तुम इसे स्वीकार करो।’ इतना कहकर सत्यप्रेमी भगवान शंकर अन्तर्धान हो गये।

जो मनुष्य प्रातः और सायंकाल एकाग्रचित्त से इस आख्यान का स्मरण करता है वह प्रतिभाशाली एवं वेदज्ञ तो होता ही है, साथ ही अपने स्वरूप को भी जान लेता है। नाभाग के पुत्र हुए अम्बरीष। वे भगवान के बड़े प्रेमी एवं उदार धर्मात्मा थे। जो ब्रह्म शाप कभी कहीं रोका नहीं जा सका, वह भी अम्बरीष का स्पर्श न कर सका।

राजा परीक्षित ने पूछा- भगवन! मैं परमज्ञानी राजर्षि अम्बरीष का चरित्र सुनना चाहता हूँ। ब्राह्मण ने क्रोधित होकर उन्हें ऐसा दण्ड दिया जो किसी प्रकार टाला नहीं जा सकता; परन्तु वह भी उनका कुछ न बिगाड़ सका।

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः