श्रीमद्भागवत महापुराण तृतीय स्कन्ध अध्याय 20 श्लोक 1-17

तृतीय स्कन्ध: विंश अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: विंश अध्यायः श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद


ब्रह्मा जी की रची हुई अनेक प्रकार की सृष्टि का वर्णन

शौनक जी कहते हैं- सूत जी! पृथ्वीरूप आधार पाकर स्वायम्भुव मनु ने आगे होने वाली सन्तति को उत्पन्न करने के लिये किन-किन उपायों का अवलम्बन किया?

विदुर जी बड़े ही भगवद्भक्त और भगवान् श्रीकृष्ण के अनन्य सुहृद् थे। इसीलिये उन्होंने अपने बड़े भाई धृतराष्ट्र को, उनके पुत्र दुर्योधन के सहित, भगवान् श्रीकृष्ण का अनादर करने के कारण अपराधी समझकर त्याग दिया था। वे महर्षि द्वैपायन के पुत्र थे और महिमा में उनसे किसी प्रकार कम नहीं थे तथा सब प्रकार भगवान् श्रीकृष्ण के आश्रित और कृष्णभक्तों के अनुगामी थे। तीर्थ सेवन से उनका अन्तःकरण और भी शुद्ध हो गया था। उन्होंने कुशावर्त क्षेत्र (हरिद्वार) में बैठे हुए तत्त्वज्ञानियों में श्रेष्ठ मैत्रेय जी के पास जाकर और क्या पूछा?

सूत जी! उन दोनों में वार्तालाप होने पर श्रीहरिके चरणों से सम्बन्ध रखने वाली बड़ी पवित्र कथाएँ हुई होंगी, जो उन्हीं चरणों से निकले हुए गंगाजल के समान सम्पूर्ण पापों का नाश करने वाली होंगी। सूत जी! आपका मंगल हो, आप हमें भगवान् की वे पवित्र कथाएँ सुनाइये। प्रभु के उदार चरित्र तो कीर्तन करने योग्य होते हैं। भला, ऐसा कौन रसिक होगा जो श्रीहरि के लीलामृत का पान करते-करते तृप्त हो जाये।

नैमिषारण्यवासी मुनियों के इस प्रकार पूछने पर उग्रश्रवा सूत जी ने भगवान् में चित्त लगाकर उनसे कहा- ‘सुनिये’।

सूत जी ने कहा- मुनिगण! अपनी माया से वराहरूप धारण करने वाले श्रीहरि की रसातल से पृथ्वी को निकालने और खेल में ही तिरस्कारपूर्वक हिरण्याक्ष को मार डालने की लीला सुनकर विदुर जी को बड़ा आनन्द हुआ और उन्होंने मुनिवर मैत्रेय जी से कहा।

विदुर जी ने कहा- ब्रह्ममन्! आप परोक्ष विषयों को भी जानने वाले हैं; अतः यह बतलाइये कि प्रजापतियों के पति श्रीब्रह्मा जी ने मरीचि आदि प्रजापतियों को उत्पन्न करके फिर सृष्टि को बढ़ाने के लिये क्या किया। मरीचि आदि मुनीश्वरों ने और स्वायम्भुव मनु ने भी ब्रह्मा जी की आज्ञा से किस प्रकार प्रजा की वृद्धि की? क्या उन्होंने इस जगत् को पत्नियों के सहयोग से उत्पन्न किया या अपने-अपने कार्य में स्वतन्त्र रहकर अथवा सबने एक साथ मिलकर इस जगत् की रचना की?

श्रीमैत्रेय जी ने कहा- विदुर जी! जिसकी गति को जानना अत्यन्त कठिन है-उन जीवों के प्रारब्ध, प्रकृति के नियन्ता पुरुष और काल-इन तीनों हेतुओं से तथा भगवान् की सन्निधि से त्रिगुणमय प्रकृति में क्षोभ होने पर उससे महत्तत्त्व उत्पन्न हुआ। दैव की प्रेरणा से रजःप्रधान महत्तत्त्व से वैकारिक (सात्त्विक), राजस और तामस- तीन प्रकार का अहंकार उत्पन्न हुआ। उसने आकाशादि पाँच-पाँच तत्त्वों के अनेक वर्ग[1] प्रकट किये। वे सब अलग-अलग रहकर भूतों के कार्यरूप ब्रह्माण्ड की रचना नहीं कर सकते थे; इसलिये उन्होंने भगवान् की शक्ति से परस्पर संगठित होकर एक सुवर्णवर्ण अण्ड की रचना की। वह अण्ड चेतनाशून्य अवस्था में एक हजार वर्षों से भी अधिक समय तक कारणाब्धि के जल में पड़ा रहा। फिर उसमें श्रीभगवान् ने प्रवेश किया। उसमें अधिष्ठित होने पर उनकी नाभि से सहस्र सूर्यों के समान अत्यन्त देदीप्यमान एक कमल प्रकट हुआ, जो सम्पूर्ण जीव-समुदाय का आश्रय था। उसी से स्वयं ब्रह्मा जी का भी आविर्भाव हुआ है। जब ब्रह्माण्ड के गर्भरूप जल में शयन करने वाले श्रीनारायणदेव ने ब्रह्मा जी के अन्तःकरण में प्रवेश किया, तब वे पूर्वकल्पों में अपने ही द्वारा निश्चित की हुई नाम-रूपमयी व्यवस्था के अनुसार लोकों की रचना करने लगे।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. पंचतन्मात्र, पंचमहाभूत, पाँच ज्ञानेन्द्रिय, पाँच कर्मेन्द्रिय और उनके पाँच-पाँच देवता-इन्हीं छः वर्गों का यहाँ संकेत समझना चाहिये।

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