श्रीमद्भागवत महापुराण तृतीय स्कन्ध अध्याय 23 श्लोक 12-29

तृतीय स्कन्ध: त्रयोविंश अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: त्रयोविंश अध्यायः श्लोक 12-29 का हिन्दी अनुवाद


मैत्रेय जी कहते हैं- विदुर जी! कर्दम मुनि ने अपनी प्रिया की इच्छा पूर्ण करने के लिये उसी समय योग में स्थित होकर एक विमान रचा, जो इच्छानुसार सर्वत्र जा सकता था। यह विमान सब प्रकार के इच्छित भोग-सुख प्रदान करने वाला, अत्यन्त सुन्दर, सब प्रकार के रत्नों से युक्त, सब सम्पत्तियों की उत्तरोत्तर वृद्धि से सम्पन्न तथा मणिमय खंभों से सुशोभित था। वह सभी ऋतुओं में सुखदायक था और उसमें जहाँ-तहाँ सब प्रकार की दिव्य सामग्रियाँ रखी हुईं थीं तथा उसे चित्र-विचित्र रेशमी झंडियों और पताकाओं से खूब सजाया गया था। जिन पर भ्रमरगण मधुर गुंजार कर रहे थे, ऐसे रंग-बिरंगे पुष्पों की मालाओं से तथा अनेक प्रकार के सूती और रेशमी वस्त्रों से वह अत्यन्त शोभायमान हो रहा था।

एक के ऊपर एक बनाये हुए कमरों में अलग-अलग रखी हुई शय्या, पलंग, पंखे और आसनों के कारण वह बड़ा सुन्दर जान पड़ता था। जहाँ-तहाँ दीवारों में की हुई शिल्प रचना से उसकी अपूर्व शोभा हो रही थी। उसमें पन्ने का फर्श था और बैठने के लिये मूँगे की वेदियाँ बनायी गयी थीं। मूँगे की ही देहलियाँ थीं। उसके द्वारों में हीरे के किवाड़ थे तथा इन्द्रनील मणि के शिखरों पर सोने के कलश रखे हुए थे। उसकी हीरे की दीवारों में बढ़िया लाल जड़े हुए थे, जो ऐसे जान पड़ते थे मानो विमान की आँखें हों तथा उसे रंग-बिरंगे चंदोवे और बहुमूल्य सुनहरी बन्दनवारों से सजाया गया था। उस विमान में जहाँ-तहाँ कृत्रिम हंस और कबूतर आदि पक्षी बनाये गये थे, जो बिलकुल सजीव-से मालूम पड़ते थे; उन्हें अपना सजातीय समझकर बहुत-से हंस और कबूतर उनके पास बैठ-बैठकर अपनी बोली बोलते थे। उसमें सुविधानुसार क्रीड़ास्थली, शयनगृह, बैठक, आँगन और चौक आदि बनाये गये थे-जिनके कारण वह विमान स्वयं कर्दम जी को भी विस्मित-सा कर रहा था।

ऐसे सुन्दर घर को भी जब देवहूति ने बहुत प्रसन्न चित्त से नहीं देखा तो सबके आन्तरिक भाव को परख लेने वाले कर्दम जी ने स्वयं ही कहा- ‘भीरु! तुम इस बिन्दुसर सरोवर में स्नान करके विमान पर चढ़ जाओ; यह विष्णु भगवान् का रचा हुआ तीर्थ मनुष्यों को सभी कामनाओं की प्राप्ति कराने वाला है’।

कमललोचना देवहूति ने अपने पति की बात मानकर सरस्वती के पवित्र जल से भरे हुए उस सरोवर में प्रवेश किया। उस समय वह बड़ी मैली-कुचैली साड़ी पहले हुए थी, उसके सिर के बाल चिपक जाने से उनमें लटें पड़ गयी थीं, शरीर में मैल जम गया था तथा स्तन कान्तिहीन हो गये थे। सरोवर में गोता लगाने पर उसने उसके भीतर एक महल में एक हजार कन्याएँ देखीं। वे सभी किशोर-अवस्था की थीं और उनके शरीर से कमल की-सी गन्ध आती थी। देवहूति को देखते ही वे सब स्त्रियाँ सहसा खड़ी हो गयीं और हाथ जोड़कर कहने लगीं, ‘हम आपकी दासियाँ हैं; हमें आज्ञा दीजिये, आपकी क्या सेवा करें?

विदुर जी! तब स्वामिनी को सम्मान देने वाली उन रमणियों ने बहुमूल्य मसालों तथा गन्ध आदि से मिश्रित जल के द्वारा मनस्विनी देवहूति को स्नान कराया तथा उसे दो नवीन और निर्मल वस्त्र पहनने को दिये। फिर उन्होंने ये बहुत मूल्य के बड़े सुन्दर और कान्तिमान् आभूषण, सर्वगुणसम्पन्न भोजन और पीने के लिये अमृत के समान स्वादिष्ट आसव प्रस्तुत किये।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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