श्रीमद्भागवत महापुराण नवम स्कन्ध अध्याय 7 श्लोक 1-15

नवम स्कन्ध: सप्तमोऽध्याय: अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: नवम स्कन्ध: सप्तम अध्यायः श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद


राजा त्रिशंकु और हरिश्चन्द्र की कथा

श्रीशुकदेव जी कहते हैं- परीक्षित! मैं वर्णन कर चुका हूँ कि मान्धाता के पुत्रों में सबसे श्रेष्ठ अम्बरीष थे। उनके दादा युवनाश्व ने उन्हें पुत्ररूप में स्वीकार कर लिया। उनका पुत्र हुआ यौवनाश्व और यौवनाश्व का हरीत। मान्धाता के वंश में ये तीन अवान्तर गोत्रों के प्रवर्तक हुए।

नागों ने अपनी बहिन नर्मदा का विवाह पुरुकुत्स से कर दिया था। नागराज वासुकि की आज्ञा से नर्मदा अपने पति को रसातल में ले गयी। वहाँ भगवान् की शक्ति से सम्पन्न होकर पुरुकुत्स ने वध करने योग्य गन्धर्वों को मार डाला। इस पर नागराज ने प्रसन्न होकर पुरुकुत्स को वर दिया कि जो इस प्रसंग का स्मरण करेगा, वह सर्पों से निर्भय हो जायेगा। राजा पुरुकुत्स का पुत्र त्रसद्दस्यु था। उसके पुत्र हुए अनरण्य। अनरण्य के हर्यश्व, उसके अरुण और अरुण के त्रिबन्धन हुए।

त्रिबन्धन के पुत्र सत्यव्रत हुए। यही सत्यव्रत 'त्रिशंकु' के नाम से विख्यात हुए। यद्यपि त्रिशंकु अपने पिता और गुरु के शाप से चाण्डाल हो गये थे, परन्तु विश्वामित्र जी के प्रभाव से वे सशरीर स्वर्ग में चले गये। देवताओं ने उन्हें वहाँ से ढकेल दिया और वे नीचे को सिर किये हुए गिर पड़े; परन्तु विश्वामित्र जी ने अपने तपोबल से उन्हें आकाश में ही स्थिर आकर दिया। वे अब भी आकाश में लटके हुए दीखते हैं।

त्रिशंकु के पुत्र थे हरिश्चन्द्र। उनके लिये विश्वामित्र और वसिष्ठ एक-दूसरे को शाप देकर पक्षी हो गये और बहुत वर्षों तक लड़ते रहे। हरिश्चन्द्र के कोई सन्तान न थी। इससे वे बहुत उदास रहा करते थे। नारद के उपदेश से वे वरुण देवता की शरण में गये और उनसे प्रार्थना की कि ‘प्रभो! मुझे पुत्र प्राप्त हो। महाराज! यदि मेरे वीर पुत्र होगा तो मैं उसी से आपका यजन करूँगा।’

वरुण ने कहा- ‘ठीक है।’ तब वरुण की कृपा से हरिश्चन्द्र के रोहित नाम का पुत्र हुआ।

पुत्र होते ही वरुण ने आकर कहा- ‘हरिश्चन्द्र! तुम्हें पुत्र प्राप्त हो गया। अब इसके द्वारा मेरा यज्ञ करो।’ हरिश्चन्द्र ने कहा- ‘जब आपका यह यज्ञपशु (रोहित) दस दिन से अधिक का हो जायेगा, तब यज्ञ के योग्य होगा’।

दस दिन बीतने पर वरुण ने आकर फिर कहा- ‘अब मेरा यज्ञ करो।’

हरिश्चन्द्र ने कहा- ‘जब आपके यज्ञपशु के मुँह में दाँत निकल आयेंगे, तब वह यज्ञ के योग्य होगा’।

दाँत उग आने पर वरुण ने कहा- ‘अब इसके दाँत निकल आये, मेरा यज्ञ करो।’

हरिश्चन्द्र ने कहा- ‘जब इसके दूध के दाँत गिर जायेंगे, तब यह यज्ञ के योग्य होगा’।

दूध के दाँत गिर जाने पर वरुण ने कहा- ‘अब इस यज्ञपशु के दाँत गिर गये, मेरा यज्ञ करो।’

हरिश्चन्द्र ने कहा- ‘जब इसके दुबारा दाँत आ जायेंगे, तब यह पशु यज्ञ के योग्य हो जायेगा’।

दाँतों के फिर उग आने पर वरुण ने कहा- ‘अब मेरा यज्ञ करो।’

हरिश्चन्द्र ने कहा- ‘वरुण जी महाराज! क्षत्रिय पशु तब यज्ञ के योग्य होता है, जब वह कवच धारण करने लगे’।

परीक्षित! इस प्रकार राजा हरिश्चन्द्र पुत्र के प्रेम से हीला-हवाला करके समय टालते रहे। इसका कारण यह था कि पुत्र-स्नेह की फाँसी ने उनके हृदय को जकड़ लिया था। वे जो-जो समय बताते वरुण देवता उसी की बाट देखते।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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