श्रीमद्भागवत महापुराण पंचम स्कन्ध अध्याय 16 श्लोक 1-11

पंचम स्कन्ध: षोडश अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: पंचम स्कन्ध: षोडश अध्यायः श्लोक 1-11 का हिन्दी अनुवाद


भुवनकोश का वर्णन

राजा परीक्षित ने कहा- मुनिवर! जहाँ तक सूर्य का प्रकाश है और जहाँ तक तारागण के सहित चन्द्रदेव दीख पड़ते हैं, वहाँ तक आपने भूमण्डल का विस्तार बतलाया है। उसमें भी आपने बतलाया कि महाराज प्रियव्रत के रथ के पहियों की सात लीकों से सात समुद्र बन गये थे, जिनके कारण इस भूमण्डल में सात द्वीपों का विभाग हुआ। अतः भगवन्! अब मैं इन सबका परिमाण और लक्षणों के सहित पूरा विवरण जानना चाहता हूँ। क्योंकि जो मन भगवान् के इस गुणमय स्थूल विग्रह में लग सकता है, उसी का उनके वासुदेव संज्ञक स्वयं प्रकाश निर्गुण ब्रह्मरूप सूक्ष्मतम स्वरूप में भी लगना सम्भव है। अतः गुरुवर! इस विषय का विशद रूप से वर्णन करने की कृपा कीजिये।

श्रीशुकदेव जी कहते हैं- महाराज! भगवान् की माया के गुणों का इतना विस्तार है कि यदि कोई पुरुष देवताओं के समान आयु पा ले, तो भी मन या वाणी से इसका अन्त नहीं पा सकता। इसिलये हम नाम, रूप, परिमाण और लक्षणों के द्वारा मुख्य-मुख्य बातों को लेकर ही इस भूमण्डल की विशेषताओं का वर्णन करेंगे। यह जम्बू द्वीप- जिसमें हम रहते हैं, भूमण्डलरूप कमल के कोशस्थानीय जो सात द्वीप हैं, उनमें सबसे भीतर का कोश है। इसका विस्तार एक लाख योजन है और यह कमलपत्र के समान गोलाकार है। इसमें नौ-नौ हजार योजन विस्तार वाले नौ वर्ष हैं, जो इनकी सीमाओं का विभाग करने वाले आठ पर्वतों से बँटे हुए हैं। इनके बीचों-बीच इलावृत नाम का दसवाँ वर्ष है, जिसके मध्य में कुल पर्वतों का राजा मेरु पर्वत है। वह मानो भूमण्डलरूप कमल की कर्णिका ही है। वह ऊपर से नीचे तक सारा-का-सारा सुवर्णमय है और एक लाख योजन ऊँचा है। उसका विस्तार शिखर पर बत्तीस हजार और तलैटी में सोलह हजार योजन है तथा सोलह हजार योजन ही वह भूमि के भीतर घुसा हुआ है अर्थात् भूमि के बाहर उसकी ऊँचाई चौरासी हजार योजन है।

इलावृत वर्ष के उत्तर में क्रमशः नील, श्वेत और श्रृंगवान् नाम के तीन पर्वत हैं- जो रम्यक, हिरण्मय और कुरु नाम के वर्षों की सीमा बाँधते हैं। वे पूर्व से पश्चिम तक खारे पानी के समुद्र तक फैले हुए हैं। उनमें से प्रत्येक की चौड़ाई दो हजार योजन है तथा लम्बाई में पहले की अपेक्षा पिछला क्रमशः दशमांश से कुछ अधिक कम है, चौड़ाई और ऊँचाई तो सभी की समान है। इसी प्रकार इलावृत के दक्षिण की ओर एक के बाद एक निषध, हेमकूट और हिमालय नाम के तीन पर्वत हैं। नीलादि पर्वतों के समान ये भी पूर्व-पश्चिम की ओर फैले हुए हैं और दस-दस हजार योजन ऊँचे हैं। इनसे क्रमशः हरिवर्ष, किम्पुरुष और भारतवर्ष की सीमाओं का विभाग होता है। इलावृत के पूर्व और पश्चिम की ओर-उत्तर में नील पर्वत और दक्षिण में निषध पर्वत तक फैले हुए गन्धमादन और माल्यवान् नाम के दो पर्वत हैं। इनकी चौड़ाई दो-दो हजार योजन है और ये भद्राश्व एवं केतुमाल नामक दो वर्षों की सीमा निश्चित करते हैं। इनके सिवा मन्दर, मेरुमन्दर, सुपार्श्व और कुमुद- ये चार दस-दस हजार योजन ऊँचे और उतने ही चौड़े पर्वत मेरु पर्वत की आधारभूता थूनियों के समान बने हुए हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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