श्रीमद्भागवत महापुराण तृतीय स्कन्ध अध्याय 6 श्लोक 1-17

तृतीय स्कन्ध: षष्ठ अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: षष्ठ अध्यायः श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद


विराट् शरीर की उत्पत्ति


मैत्रेय ऋषि ने कहा- सर्वशक्तिमान्! भगवान् ने जब देखा कि आपस में संगठित न होने के कारण ये मेरी महत्तत्त्व आदि शक्तियाँ विश्व रचना के कार्य में असमर्थ हो रही हैं, तब वे काल शक्ति को स्वीकार करके एक साथ ही महत्तत्त्व, अहंकार, पंचभूत, पंचतन्मात्रा और मन सहित ग्यारह इन्द्रियाँ- इन तेईस तत्त्वों के समुदाय में प्रविष्ट हो गये। उसमें प्रविष्ट होकर उन्होंने जीवों के सोये हुए अदृष्ट को जाग्रत् किया और परस्पर विलग हुए। उस तत्त्व समूह को अपनी क्रिया शक्ति के द्वारा आपस में मिला दिया। इस प्रकार जब भगवान् ने अदृष्ट को कार्योन्मुख किया, तब उस तेईस तत्त्वों के समूह ने भगवान् की प्रेरणा से अपने अंशों द्वारा अधिपुरुष-विराट् को उत्पन्न किया। अर्थात् जब भगवान् ने अंशरूप से अपने उस शरीर में प्रवेश किया, तब वह विश्व रचना करने वाला महत्तत्त्वादि समुदाय एक-दूसरे से मिलकर परिणाम को प्राप्त हुआ। यह तत्त्वों का परिणाम हो विराट् पुरुष है, जिसमें चराचर जगत् विद्यमान है।

जल के भीतर जो अण्डरूप आश्रय स्थान था, उसमें वह हिरण्यमय विराट् पुरुष सम्पूर्ण जीवों को साथ लेकर एक हजार दिव्य वर्षों तक रहा। वह विश्व रचना करने वाले तत्त्वों का गर्भ (कार्य) था तथा ज्ञान, क्रिया और आत्मशक्ति से सम्पन्न था। इन शक्तियों से उसने स्वयं अपने क्रमशः एक (हृदय रूप), दस (प्राण रूप) और तीन (आध्यात्मिक, आधिदैविक, आधिभौतिक) विभाग किये। यह विराट् पुरुष ही प्रथम जीव रूप होने के कारण समस्त जीवों का आत्मा, जीवरूप होने के कारण परमात्मा का अंश और प्रथम अभिव्यक्त होने के कारण भगवान् का आदि अवतार है। यह सम्पूर्ण भूतसमुदाय इसी में प्रकाशित होता है। यह अध्यात्म, अधिभूत और अधिदैव रूप से तीन प्रकार का, प्राणरूप से दस प्रकार का[1] और हृदयरूप से एक प्रकार का है।

फिर विश्व की रचना करने वाले महत्तत्त्वादि के अधिपति श्रीभगवान ने उनकी प्रार्थना को स्मरण कर उनकी वृत्तियों को जगाने के लिये अपने चेतनरूप तेज से उस विराट् पुरुष को प्रकाशित किया, उसे जगाया। उसके जाग्रत् होते ही देवताओं के लिये कितने स्थान प्रकट हुए-यह मैं बतलाता हूँ, सुनो।

विराट् पुरुष के पहले मुख प्रकट हुआ; उसमें लोकपाल अग्नि अपने अंश वागिन्द्रिय के समेत प्रविष्ट हो गया, जिससे यह जीव बोलता है। फिर विराट् पुरुष के तालु उत्पन्न हुआ; उसमें लोकपाल वरुण अपने अंश रसनेन्द्रिय के सहित स्थित हुआ, जिससे जीव रस ग्रहण करता। इसके पश्चात् उस विराट् पुरुष के नथुने प्रकट हुए; उसमें दोनों अश्विनीकुमार अपने अंश घ्राणेन्द्रिय के सहित प्रविष्ट हुए, जिससे जीव गन्ध ग्रहण करता है। इसी प्रकार जब उस विराट् देह में आँखें प्रकट हुईं, तब उनमें अपने अंश नेत्रेन्द्रिय के सहित-लोकपति सूर्य ने प्रवेश किया, जिस नेत्रेन्द्रिय से पुरुष विविध रूपों का ज्ञान होता है। फिर उस विराट् विग्रह में त्वचा उत्पन्न हुई; उसमें अपने अंश त्वगिन्द्रिय से जीव स्पर्श का अनुभव करता है। जब इसके कर्णछिद्र प्रकट हुए, तब उसमें अपने अंश श्रवणेन्द्रिय के सहित दिशाओं ने प्रवेश किया, जिस श्रवणेन्द्रिय से जीव को शब्द का ज्ञान होता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. दस इन्द्रियों सहित मन अध्यात्म है, इन्द्रियादि के विषय अधिभूत हैं, इन्द्रियाधिष्ठाता देव अधिदैव हैं तथा प्राण, अपान, उदान, समान, व्यान, नाग, कूर्म, कृकल, देवदत्त और धनंजय- ये दस प्राण हैं।

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