दशम स्कन्ध: द्वयशीतितम अध्याय (पूर्वार्ध)
श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: द्वयशीतितम अध्याय श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद
श्रीशुकदेव जी कहते हैं- परीक्षित! इसी प्रकार भगवान श्रीकृष्ण और बलराम जी द्वारका में निवास कर रहे थे। एक बार सर्वग्रास सूर्यग्रहण लगा, जैसा कि प्रलय के समय लगा करता है। परीक्षित! मनुष्यों को ज्योतिषियों के द्वारा उस ग्रहण का पता पहले से ही चल गया था, इसलिये सब लोग अपने-अपने कल्याण के उद्देश्य से पुण्य आदि उपार्जन करने के लिए समन्तपंचक तीर्थ कुरुक्षेत्र में आये। समन्तपंचक क्षेत्र वह है, जहाँ शस्त्रधारियों में श्रेष्ठ परशुराम जी ने सारी पृथ्वी क्षत्रियहीन करके राजाओं की रुधिर धारा से पाँच बड़े-बड़े कुण्ड बना दिये थे। जैसे कोई साधारण मनुष्य अपने पाप की निवृत्ति के लिये प्रायश्चित करता है, वैसे ही सर्वशक्तिमान् भगवान परशुराम ने अपने साथ कर्म का कुछ सम्बन्ध न होने पर भी लोकमर्यादा की रक्षा के लिये वहीं पर यज्ञ किया था। परीक्षित! महान् तीर्थयात्रा के अवसर पर भारतवर्ष के सभी प्रान्तों की जनता कुरुक्षेत्र आयी थी। उनमें, अक्रूर, वसुदेव, उग्रसेन आदि बड़े-बूढ़े तथा गद, प्रद्युम्न, साम्ब आदि अन्य यदुवंशी सभी अपने-अपने पापों का नाश करने के लिये कुरुक्षेत्र आये थे। प्रद्युम्ननन्दन अनिरुद्ध और यदुवंशी सेनापति कृतवर्मा- ये दोनों सुचंद्र, शुक, सारण आदि के साथ नगर की रक्षा के लिये द्वारका में रह गये थे। यदुवंशी एक तो स्वभाव से ही परमतेजस्वी थे; दूसरे गले में सोने की माला, दिव्य पुष्पों के हार, बहुमूल्य वस्त्र और कवचों से सुसज्जित होने के कारण उनकी शोभा और भी बढ़ गयी थी। वे तीर्थयात्रा के पथ में देवताओं के विमान के समान रथों, समुद्र की तरंग के समान चलने वाले घोड़ों, बादलों के समान विशालकाय एवं गर्जना करते हुए हाथियों तथा विद्याधरों के समान मनुष्यों के द्वारा ढोयी जाने वाली पालकियों पर अपनी पत्नियों के साथ इस प्रकार शोभायमान हो रहे थे, मानो स्वर्ग के देवता ही यात्रा कर रहे हों। महाभाग्यवान् यदुवंशियों ने कुरुक्षेत्र में पहुँचकर एकाग्रचित्त से संयमपूर्वक स्नान किया और ग्रहण के उपलक्ष्य में निश्चित काल तक उपवास किया। उन्होंने ब्राह्मणों को गोदान किया। ऐसी गौओं का दान किया, जिन्हें वस्त्रों की सुन्दर-सुन्दर झूले, पुष्पमालाएँ एवं सोने की जंजीरें पहना दी गयी थीं। इसके बाद ग्रहण का मोक्ष हो जाने पर परशुराम जी के बनाये हुए कुण्डों में यदुवंशियों ने विधिपूर्वक स्नान किया और सत्पात्र ब्राह्मणों को सुन्दर-सुन्दर पकवानों का भोजन कराया। उन्होंने अपने मन में यह संकल्प किया था कि भगवान श्रीकृष्ण के चरणों में हमारी प्रेमभक्ति बनी रहे। भगवान श्रीकृष्ण को ही अपना आदर्श और इष्टदेव मानने वाले यदुवंशियों ने ब्राह्मणों से अनुमति लेकर तब स्वयं भोजन किया और फिर घनी एवं ठंडी छाया वाले वृक्षों के नीचे अपनी-अपनी इच्छा के अनुसार डेरा डालकर ठहर गये। परीक्षित! विश्राम कर लेने के बाद यदुवंशियों ने अपने सुहृद और सम्बन्धी राजाओं से मिलना-भेंटना शुरू किया। वहाँ मत्स्य, उशीनर, कोसल, विदर्भ, कुरु, सृंजय, काम्बोज, कैकय, मद्र, कुन्ति, आनर्त, केरल एवं दूसरे अनेकों देशों के- अपने पक्ष के तथा शत्रुपक्ष के- सैकड़ों नरपति आये हुए थे। परीक्षित! इनके अतिरिक्त यदुवंशियों के परम हितैषी बन्धु नन्द आदि गोप तथा भगवान के दर्शन के लिये चिरकाल से उत्कण्ठित गोपियाँ भी वहाँ आयी हुई थीं। यादवों ने इन सबको देखा। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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