श्रीमद्भागवत महापुराण तृतीय स्कन्ध अध्याय 16 श्लोक 1-12

तृतीय स्कन्ध: षोडश अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: षोडश अध्यायः श्लोक 1-12 का हिन्दी अनुवाद


जय-विजय का वैकुण्ठ से पतन

श्रीब्रह्मा जी ने कहा- देवगण! जब योगनिष्ठ सनकादि मुनियों ने इस प्रकार स्तुति की, तब वैकुण्ठ-निवास श्रीहरि ने उनकी प्रशंसा करते हुए यह कहा।

श्रीभगवान् ने कहा- मुनिगण! ये जय-विजय मेरे पार्षद हैं। उन्होंने मेरी कुछ भी परवा न करके आपका बहुत बड़ा अपराध किया है। आप लोग भी मेरे अनुगत भक्त हैं; अतः इस प्रकार मेरी ही अवज्ञा करने के कारण आपने इन्हें जो दण्ड दिया है, वह मुझे भी अभिमत है। ब्राह्मण मेरे परम आराध्य हैं; मेरे अनुचरों के द्वारा आप लोगों का जो तिरस्कार हुआ है, उसे मैं अपना ही किया हुआ मानता हूँ। इसलिये मैं आप लोगों से प्रसन्नता की भिक्षा माँगता हूँ। सेवकों के अपराध करने पर संसार उनके स्वामी का ही नाम लेता है। वह अपयश उसकी कीर्ति को इस प्रकार दूषित कर देता है, जैसे त्वचा को कर्मरोग।

मेरी निर्मल सुयश-सुधा में गोता लगाने से चाण्डालपर्यन्त सारा जगत् तुरंत पवित्र हो जाता है, इसीलिये मैं ‘विकुण्ठ’ कहलाता हूँ। किन्तु यह पवित्र कीर्ति मुझे आप लोगों से ही प्राप्त हुई है। इसलिये जो कोई आपके विरुद्ध आचरण करेगा, वह मेरी भुजा हो क्यों न हो-मैं उसे तुरन्त काट डालूँगा। आप लोगों की सेवा करने से ही मेरी चरणरज को ऐसी पवित्रता प्राप्त हुई है कि वह सारे पापों को तत्काल नष्ट कर देती है और मुझे ऐसा सुन्दर स्वभाव मिला है कि मेरे उदासीन रहने पर भी लक्ष्मी जी मुझे एक क्षण के लिये भी नहीं छोड़ती-यद्यपि इन्हीं के लेशमात्र कृपाकटाक्ष के लिये अन्य ब्रह्मादि देवता नाना प्रकार के नियमों एवं व्रतों का पालन करते हैं। जो अपने सम्पूर्ण कर्म फल मुझे अर्पण कर सदा सन्तुष्ट रहते हैं, वे निष्काम ब्राह्मण ग्रास-ग्रास पर तृप्त होते हुए घी से तर तरह-तरह के पकवानों का जब भोजन करते हैं, तब उनके मुख से मैं जैसा तृप्त होता हूँ वैसा यज्ञ में अग्निरूप मुख से यजमान की दी हुई आहुतियों को ग्रहण करके नहीं होता।

योगमाया का अखण्ड और असीम ऐश्वर्य मेरे अधीन है तथा मेरी चरणोदकरूपिणी गंगाजी चन्द्रमा को मस्तक पर धारण करने वाले भगवान् शंकर के सहित समस्त लोकों को पवित्र करती हैं। ऐसा परम पवित्र एवं परमेश्वर होकर भी मैं जिनकी पवित्र चरण-रज को अपने मुकुट पर धारण करता हूँ, उन ब्राह्मणों के कर्म को कौन नहीं सहन करेगा। ब्राह्मण, दूध देने वाली गौएँ और अनाथ प्राणी-ये मेरे ही शरीर हैं। पापों के द्वारा विवेकदृष्टि नष्ट हो जाने के कारण जो लोग इन्हें मुझसे भिन्न समझते हैं, उन्हें मेरे द्वारा नियुक्त यमराज के गृध-जैसे दूत-जो सर्प के समान क्रोधी हैं-अत्यन्त क्रोधित होकर अपनी चोंचो से नोचते हैं। ब्राह्मण तिरस्कारपूर्वक कटुभाषण भी करे, तो भी जो उसमें मेरी भावना मुखकमल से उसका आदर करते हैं तथा जैसे रूठे हुए पिता को पुत्र और आप लोगों को मैं मानता हूँ, उसी प्रकार जो प्रेमपूर्ण वचनों से प्रार्थना करते हुए उन्हें शान्त करते हैं, वे मुझे अपने वश में कर लेते हैं। मेरे इन सेवकों ने मेरा अभिप्राय न समझकर ही आप लोगों का अपमान किया है। इसलिये मेरे अनुरोध से आप केवल इतनी कृपा कीजिये कि इनका यह निर्वासन काल शीघ्र ही समाप्त हो जाये, ये अपने अपराध के अनुरूप अधम गति को भोगकर शीघ्र ही मेरे पास लौट आयें।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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