श्रीमद्भागवत महापुराण षष्ठ स्कन्ध अध्याय 9 श्लोक 1-14

षष्ठ स्कन्ध: नवम अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: षष्ठ स्कन्ध: नवम अध्यायः श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद


विश्वरूप का वध, वृत्रासुर द्वारा देवताओं की हार और भगवान् की प्रेरणा से देवताओं का दधीचि ऋषि के पास जाना

श्रीशुकदेव जी कहते हैं- परीक्षित! हमने सुना है कि विश्वरूप के तीन सिर थे। वे एक मुँह से सोमरस तथा दूसरे से सुरा पीते थे और तीसरे से अन्न खाते थे। उनके पिता त्वष्टा आदि बारह आदित्य देवता थे, इसलिये वे यज्ञ के समय प्रत्यक्ष रूप में ऊँचे स्वर से बोलकर बड़े विनय के साथ देवताओं को आहुति देते थे। साथ ही वे छिप-छिपकर असुरों को भी आहुति दिया करते थे। उनकी माता असुर कुल की थीं, इसीलिये वे मातृस्नेह के वशीभूत होकर यज्ञ करते समय उस प्रकार असुरों का भाग पहुँचाया करते थे।

देवराज इन्द्र ने देखा कि इस प्रकार वे देवताओं का अपराध और धर्म की ओट में कपट कर रहे हैं। इससे इन्द्र डर गये और क्रोध में भरकर उन्होंने बड़ी फुर्ती से उनके तीनों सिर काट लिये। विश्वरूप का सोमरस पीने वाला सिर पपीहा, सुरापान करने वाला गौरैया और अन्न खाने वाला तीतर हो गया। इन्द्र चाहते तो विश्वरूप के वध से लगी हुई हत्या को दूर कर सकते थे; परन्तु उन्होंने ऐसा करना उचित न समझा, वरन हाथ जोड़कर उसे स्वीकार कर लिया तथा एक वर्ष तक उससे छूटने का कोई उपाय नहीं किया। तदनन्तर सब लोगों के सामने अपनी शुद्धि प्रकट करने के लिये उन्होंने अपनी ब्रह्महत्या को चार हिस्सों में बाँटकर पृथ्वी, जल, वृक्ष और स्त्रियों को दे दिया।

परीक्षित! पृथ्वी ने बदले में यह वरदान लेकर कि जहाँ कहीं गड्ढा होगा, वह समय पर अपने-आप भर जायेगा, इन्द्र की ब्रह्महत्या का चतुर्थांश स्वीकार कर लिया। वही ब्रह्महत्या पृथ्वी में कहीं-कहीं ऊसर के रूप में दिखायी पड़ती है। दूसरा चतुर्थांश वृक्षों ने लिया। उन्हें यह वर मिला कि उनका कोई हिस्सा कट जाने पर फिर जम जायेगा। उनमें अब भी गोंद के रूप में ब्रह्महत्या दिखायी पड़ती है। स्त्रियों ने यह वर पाकर कि वे सर्वदा पुरुष का सहवास कर सकें; ब्रह्महत्या का तीसरा चतुर्तांश स्वीकार किया। उनकी ब्रह्महत्या प्रत्येक महीने में रज के रूप में दिखायी पड़ती है। जल ने यह वर पाकर कि खर्च करते रहने पर भी निर्झर आदि के रूप में तुम्हारी बढ़ती ही होती रहेगी, ब्रह्महत्या का चौथा चतुर्थांश स्वीकार किया। फेन, बुद्बुद आदि के रूप में वही ब्रह्महत्या दिखायी पड़ती है। अतएव मनुष्य उसे हटाकर जल ग्रहण किया करते हैं।

विश्वरूप की मृत्यु के बाद उनके पिता त्वष्टा ‘हे इन्द्रशत्रो! तुम्हारी अभिवृद्धि हो और शीघ्र से-शीघ्र तुम अपने शत्रु को मार डालो’-इस मन्त्र से इन्द्र का शत्रु उत्पन्न करने के लिये हवन करने लगे। यज्ञ समाप्त होने पर अन्वाहार्य-पचन नामक अग्नि (दक्षिणाग्नि) से एक बड़ा भयावना दैत्य प्रकट हुआ। वह ऐसा जान पड़ता था, मानो लोकों का नाश करने के लिये प्रलयकालीन विकराल काल ही प्रकट हुआ हो।

परीक्षित! वह प्रतिदिन अपने शरीर के सब ओर बाण के बराबर बढ़ जाया करता था। वह जले हुए पहाड़ के समान काला और बड़े डील-डौल का था। उसके शरीर में से सन्ध्याकालीन बादलों के समान दीप्ति निकलती रहती थी। उसके सिर के बाल और दाढ़ी-मूँछ तपे हुए ताँबे के समान लाल रंग के तथा नेत्र दोपहर के सूर्य के समान प्रचण्ड थे।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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