श्रीमद्भागवत महापुराण तृतीय स्कन्ध अध्याय 25 श्लोक 1-16

तृतीय स्कन्ध: पंचविंश अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: तृतीय स्कन्ध: पंचविंश अध्यायः श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद


देवहूति का प्रश्न तथा भगवान् कपिल द्वारा भक्तियोग की महिमा का वर्णन

शौनक जी ने पूछा- सूतजी! तत्त्वों की संख्या करने वाले भगवान् कपिल साक्षात् अजन्मा नारायण होकर भी लोगों को आत्मज्ञान का उपदेश करने के लिये अपनी माया से उत्पन्न हुए थे। मैंने भगवान् के बहुत-से चरित्र सुने हैं, तथापि इन योगिप्रवर पुरुषश्रेष्ठ कपिल जी की कीर्ति को सुनते-सुनते मेरी इन्द्रियाँ तृप्त नहीं होतीं। सर्वथा स्वतन्त्र श्रीहरि अपनी योगमाया द्वारा भक्तों की इच्छा के अनुसार शरीर धारण करके जो-जो लीलाएँ करते हैं, वे सभी कीर्तन करने योग्य हैं; अतः आप मुझे वे सभी सुनाइये, मुझे उन्हें सुनने में बड़ी श्रद्धा है।

सूत जी कहते हैं- मुने! आपकी ही भाँति जब विदुर ने भी यह आत्मज्ञान विषयक प्रश्न किया, तो श्रीव्यास जी के सखा भगवान् मैत्रेय जी प्रसन्न होकर इस प्रकार कहने लगे।

श्रीमैत्रेय जी ने कहा- विदुर जी! पिता के वन में चले जाने पर भगवान् कपिल जी माता का प्रिय करने की इच्छा से उस बिन्दुसर तीर्थ में रहने लगे। एक दिन तत्त्व समूह के पारदर्शी भगवान् कपिल कर्मकलाप से विरत हो आसन पर विराजमान थे। उस समय ब्रह्मा जी के वचनों का स्मरण करके देवहूति ने उनसे कहा।

देवहूति बोली- भूमन्! प्रभो! इन दुष्ट इन्द्रियों की विषय-लालसा से मैं बहुत ऊब गयी हूँ और इनकी इच्छा पूरी करते रहने से ही घोर अज्ञानान्धकार से पार लगाने के लिये सुन्दर नेत्ररूप आप प्राप्त हुए हैं। आप सम्पूर्ण जीवों के स्वामी भगवान् आदिपुरुष हैं तथा अज्ञानान्धकार से अन्धे पुरुषों के लिये नेत्र स्वरूप सूर्य की भाँति उदित हुए हैं। देव! इन देह-गेह आदि में मैं-मेरेपन का दुराग्रह होता है, वह भी आपका ही कराया हुआ है; अतः अब आप मेरे इस महामोह को दूर कीजिये। आप अपने भक्तों के संसाररूप वृक्ष के लिये कुठार के समान हैं; मैं प्रकृति और पुरुष का ज्ञान प्राप्त करने की इच्छा से आप शरणागतवत्सल की शरण में आयी हूँ। आप भागवत धर्म जानने वालों में सबसे श्रेष्ठ हैं, मैं आपको प्रणाम करती हूँ।

श्रीमैत्रेय जी कहते हैं- इस प्रकार माता देवहूति ने अपनी जो अभिलाषा प्रकट की, वह परम पवित्र और लोगों का मोक्ष मार्ग में अनुराग उत्पन्न करने वाली थी, उसे सुनकर आत्मज्ञ सत्पुरुषों की गति श्रीकपिल जी उसकी मन-ही-मन प्रशंसा करने लगे और फिर मृदु मुस्कान से सुशोभित मुखारविन्द से इस प्रकार कहने लगे।

भगवान् कपिल ने कहा- माता! यह मेरा निश्चय है कि अध्यात्मयोग ही मनुष्यों के आत्यन्तिक कल्याण का मुख्य साधन है, जहाँ दुःख और सुख की सर्वथा निवृत्ति हो जाती है। साध्वि! सब अंगों से सम्पन्न उस योग का मैंने पहले नारदादि ऋषियों के सामने, उनकी सुनने की इच्छा होने पर, वर्णन किया था। वही अब मैं आपको सुनाता हूँ। इस जीव के बन्धन और मोक्ष का कारण मन ही माना गया है। विषयों में आसक्त होने पर वह बन्धन का हेतु होता है और परमात्मा में अनुरक्त होने पर वही मोक्ष का कारण बन जाता है। जिस समय यह मन मैं और मेरेपन के कारण होने वाले काम-लोभ आदि विकारों से मुक्त एवं शुद्ध हो जाता है, उस समय वह सुख-दुःख से छूटकर सम अवस्था में आ जाता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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