श्रीमद्भागवत महापुराण चतुर्थ स्कन्ध अध्याय 13 श्लोक 1-20

चतुर्थ स्कन्ध: त्रयोदश अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: चतुर्थ स्कन्ध: त्रयोदश अध्यायः श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद


ध्रुववंश का वर्णन, राजा अंग का चरित्र

श्रीसूत जी कहते हैं- शौनक जी! श्रीमैत्रेय मुनि के मुख से ध्रुव जी के विष्णुपद पर आरूढ़ होने का वृत्तान्त सुनकर विदुर जी के हृदय में भगवान् विष्णु की भक्ति का उद्रेक हो आया और उन्होंने फिर मैत्रेय जी से प्रश्न करना आरम्भ किया।

विदुर जी ने पूछा- भगवत्परायण मुने! ये प्रचेता कौन थे? किसके पुत्र थे? किसके वंश में प्रसिद्ध थे और इन्होंने कहाँ यज्ञ किया था? भगवान् के दर्शन से कृतार्थ नारद जी परम भागवत हैं- ऐसा मैं मानता हूँ। उन्होंने पांचरात्र का निर्माण करके श्रीहरि की पूजा पद्धतिरूप क्रियायोग का उपदेश किया है। जिस समय प्रचेतागण स्वधर्म का आचरण करते हुए भगवान् यज्ञेश्वर की आराधना कर रहे थे, उसी समय भक्तप्रवर नारद जी ने ध्रुव का गुणगान किया था। ब्रह्मन्! उस स्थान पर उन्होंने भगवान् की जिन-जिन लीला-कथाओं का वर्णन किया था, वे सब पूर्णरूप से मुझे सुनाइये; मुझे उनके सुनने की बड़ी इच्छा है।

श्रीमैत्रेय जी ने कहा- विदुर जी! महाराज ध्रुव के वन चले जाने पर उनके पुत्र उत्कल ने अपने पिता के सार्वभौम वैभव और राज्यसिंहासन को अस्वीकार कर दिया। वह जन्म से ही शान्तचित्त, आसक्तिशून्य और समदर्शी था; तथा सम्पूर्ण लोकों को अपनी आत्मा में और अपनी आत्मा को सपूर्ण लोकों में स्थित देखता था। उसके अन्तःकरण का वासनारूप मल अखण्ड योगाग्नि से भस्म हो गया था। इसलिये वह अपनी आत्मा को विशुद्ध बोधरस के साथ अभिन्न, आनन्दमय और सर्वत्र व्याप्त देखता था। सब प्रकार के भेद से रहित प्रशान्त ब्रह्म को ही वह अपना स्वरूप समझता था; तथा अपनी आत्मा से भिन्न कुछ भी नहीं देखता था। वह अज्ञानियों को रास्ते आदि साधारण स्थानों में बिना लपट की आग के समान मूर्ख, अंधा, बहिरा, पागल अथवा गूँगा-सा प्रतीत होता था- वास्तव में ऐसा था नहीं। इसलिये कुल के बड़े-बूढ़े तथा मन्त्रियों ने उसे मूर्ख और पागल समझकर उसके छोटे भाई भ्रमिपुत्र वत्सर को राजा बनाया।

वत्सर की प्रेयसी भार्या स्वर्वीथि के गर्भ से पुष्पार्ण, तिग्मकेतु, इष, ऊर्ज, वसु और जय नाम के छः पुत्र हुए। पुष्पार्ण के प्रभा और दोषा नाम की दो स्त्रियाँ थीं; उनमें से प्रभा के प्रातः, मध्यन्दिन और सायं- ये तीन पुत्र हुए। दोषा के प्रदोष, निशीथ और वयुष्ट- ये तीन पुत्र हुए। वयुष्ट ने अपनी भार्या पुष्करिणी से सर्वतेजा नाम का पुत्र उत्पन्न किया। उसकी पत्नी आकूति से चक्षुः नामक पुत्र हुआ। चाक्षुष मन्वन्तर में वही मनु हुआ। चक्षु मनु की स्त्री नड्वला से पुरु, कुत्स, त्रित, द्युम्न, सत्यवान्, ऋत, व्रत, अग्निष्टोम, अतिरात्र, प्रद्युम्न, शिबि और उल्मुक- ये बारह सत्त्वगुणी बालक उत्पन्न हुए। इसमें उल्मुक ने अपनी पत्नी पुष्करिणी से अंग, सुमना, ख्याति, क्रतु, अंगिरा और गय- ये छः उत्तम पुत्र उत्पन्न किये। अंग की पत्नी सुनीथा ने क्रूरकर्मा वेन को जन्म दिया, जिसकी दुष्टता से उद्विग्न होकर राजर्षि अंग नगर छोड़कर चले गये थे।

प्यारे विदुर जी! मुनियों के वाक्य वज्र के समान अमोघ होते हैं; उन्होंने कुपित होकर वेन को शाप दिया और जब वह मर गया, तब कोई राजा न रहने के कारण लोक में लुटेरों के द्वारा प्रजा को बहुत कष्ट होने लगा। यह देखकर उन्होंने वेन की दाहिन भुजा का मन्थन किया, जिससे भगवान् विष्णु के अंशावतार आदि सम्राट् महाराज पृथु प्रकट हुए।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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