श्रीमद्भागवत महापुराण नवम स्कन्ध अध्याय 9 श्लोक 1-13

नवम स्कन्ध: नवमोऽध्याय: अध्याय

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श्रीमद्भागवत महापुराण: नवम स्कन्ध: नवम अध्यायः श्लोक 1-13 का हिन्दी अनुवाद


भगीरथ-चरित्र और गंगावतरण

श्रीशुकदेव जी कहते हैं- परीक्षित! अंशुमान् ने गंगा जी को लाने की कामना से बहुत वर्षों तक घोर तपस्या की; परन्तु उन्हें सफलता नहीं मिली, समय आने पर उनकी मृत्यु हो गयी। अंशुमान् के पुत्र दिलीप ने भी वैसी ही तपस्या की; परन्तु वे भी असफल ही रहे, समय पर उनकी भी मृत्यु हो गयी। दिलीप के पुत्र थे भगीरथ। उन्होंने बहुत बड़ी तपस्या की। उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर भगवती गंगा ने उन्हें दर्शन दिया और कहा कि- ‘मैं तुम्हें वर देने के लिये आयी हूँ।’ उनके ऐसा कहने पर राजा भगीरथ ने बड़ी नम्रता से अपना अभिप्राय प्रकट किया कि ‘आप मर्त्यलोक में चलिये’।

[गंगा जी ने कहा] ‘जिस समय मैं स्वर्ग से पृथ्वीतल पर गिरूँ, उस समय मेरे वेग को कोई धारण करने वाला होना चाहिये। भगीरथ! ऐसा न होने पर मैं पृथ्वी को फोड़कर रसातल में चली जाऊँगी। इसके अतिरिक्त इस कारण से भी मैं पृथ्वी पर नहीं जाऊँगी कि लोग मुझमें अपने पाप धोयेंगे। फिर मैं उस पाप को कहाँ धोऊँगी। भगीरथ! इस विषय में तुम स्वयं विचार कर लो’।

भगीरथ ने कहा- ‘माता! जिन्होंने लोक-परलोक, धन-सम्पत्ति और स्त्री-पुरुष की कामना का संन्यास कर दिया है, जो संसार से उपरत होकर अपने-आप में शान्त हैं, जो ब्रह्मनिष्ठ और लोकों को पवित्र करने वाले परोपकारी सज्जन हैं-वे अपने अंगस्पर्श से तुम्हारे पापों को नष्ट कर देंगे। क्योंकि उनके हृदय में अघरूप अघासुर को मारने वाले भगवान सर्वदा निवास करते हैं। समस्त प्राणियों के आत्मा रुद्रदेव तुम्हारा वेग धारण कर लेंगे। क्योंकि जैसे साड़ी सूतों में ओत-प्रोत है, वैसे ही यह सारा विश्व भगवान रुद्र में ही ओत-प्रोत है’।

परीक्षित! गंगा जी से इस प्रकार कहकर राजा भगीरथ ने तपस्या के द्वारा भगवान शंकर को प्रसन्न किया। थोड़े ही दिनों में महादेव जी उन पर प्रसन्न हो गये। भगवान शंकर तो सम्पूर्ण विश्व के हितैषी हैं, राजा की बात उन्होंने ‘तथास्तु’ कहकर स्वीकार कर ली। फिर शिव जी ने सावधान होकर गंगा जी को अपने सिर पर धारण किया। क्यों न हो, भगवान के चरणों का सम्पर्क होने के कारण गंगा जी का जल परम पवित्र जो है। इसके बाद राजर्षि भगीरथ त्रिभुवनपावनी गंगा जी को वहाँ ले गये, जहाँ उनके पितरों के शरीर राख के ढेर बने पड़े थे। वे वायु के समान वेग से चलने वाले रथ पर सवार होकर आगे-आगे चल रहे थे और उनके पीछे-पीछे मार्ग में पड़ने वाले देशों को पवित्र करती हुई गंगा जी दौड़ रही थीं। इस प्रकार गंगासागर-संगम पर पहुँचकर उन्होंने सगर के जले हुए पुत्रों को अपने जल में डुबा दिया। यद्यपि सगर के पुत्र ब्राह्मण के तिरस्कार के कारण भस्म हो गये थे, इसलिये उनके उद्धार का कोई उपाय न था-फिर भी केवल शरीर की राख के साथ गंगाजल का स्पर्श हो जाने से ही वे स्वर्ग में चले गये।

परीक्षित! जब गंगाजल से शरीर की राख का स्पर्श हो जाने से सगर के पुत्रों को स्वर्ग की प्राप्ति हो गयी, तब जो लोग श्रद्धा के साथ नियम लेकर श्रीगंगा जी का सेवन करते हैं, उनके सम्बन्ध में तो कहना ही क्या है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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